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१६३. खेचरों की 'काय-स्थिति' (का उपर्युक्त कथन) है। उनका (अन्य
कायों में उत्पन्न होकर, पुनः खेचर-काय में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके उक्त निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) 'अन्तर-काल' उत्कृष्टतः अनन्त काल का, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त का होता है।
-१६४. इन (खेचरों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टियों
से (तो) हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं।
१६५. मनुष्य दो प्रकार के हैं। उन (भेदों) को मैं कह रहा हूँ, सुनो।
(वे दो भेद इस प्रकार हैं-) (१) सम्मूर्छिम, और (२) गर्भावक्रान्तिक (गर्भ-उत्पन्न)।
१६६. (उनमें) जो गर्भज (मनुष्य) हैं, वे तीन प्रकार के कहे गये हैं
(१) अकर्मभूमिक, (२) कर्मभूमिक, और (३) अन्तर्वीपक।
१६७.(उन तीनों में, कर्मभूमिक- कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले
मनुष्यों के) पन्द्रह, (अकर्मभूमिक मनुष्यों के) तीस, तथा (अन्तर्वीपक-अन्तर्वीपों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के) अट्ठाईस-२ भेद होते हैं। यह संख्या उनकी क्रमशः कही गई
१६८. सम्मूर्छिम मनुष्यों के भी इसी प्रकार (१५, ३०, ५६ कुल १०१)
भेद कहे गये हैं। वे सब भी लोक के एक देश (भाग) में ही (अवस्थित) कहे गये हैं।
अध्ययन-३६
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