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________________ १७७.जलचर जीवों का, अपने (जलचर) शरीर को छोड़ने पर (और अन्य कायों में उत्पन्न होकर पुनः उसी जलचर-काय में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके उक्त निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) 'अन्तर-काल' उत्कृष्टतः अनन्त काल का, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त का होता है। १७८.इन (जलचर जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श व संस्थान की दृष्टियों से (तो) हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं। १७६. स्थलचर (जीवों) के दो भेद हैं- (१) चतुष्पद, और (२) परिसर्प । (उनमें) चतुष्पद चार प्रकार के होते हैं। उनके विषय में मुझसे सुनो। १८०. (चतुष्पद स्थलचर जीवों में) (१) एक 'खुर' (चरण के नीचे स्थूल अस्थि-विशेष) वाले- घोड़ा आदि, (२) दो खुरों वाले- बैल आदि, (३) गण्डीपद (गोल पैर वाले)- हाथी आदि, और (४) सनखपद (नखयुक्त पैरों वाले)- सिंह आदि।। १८१. (उनमें) परिसर्प दो प्रकार के होते हैं:- (१) भुजग-परिसर्प (हाथों-भुजाओं के बल चलने वाले)- गोह आदि, और (२) उरग-परिसर्प (पेट व छाती के बल चलने वाले)- सांप आदि । इनमें प्रत्येक के (भी) अनेक भेद होते हैं। १८२. वे सब (स्थलचर) सर्वत्र (लोक में) नहीं, अपितु लोक के एकदेश (भाग) में (ही अवस्थित) कहे गये हैं। इसके बाद, (अब) मैं उनके चार प्रकार के 'काल-विभाग' (काल की दृष्टि से भेदों) का कथन करूंगा। अध्ययन-३६ ८१६
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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