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________________ १६४. पांचवीं (धूमप्रभा पृथ्वी) में (रहने वाले नारकियों की) 'आयु-स्थिति' उत्कृष्टतः सत्रह सागरोपम की, तथा जघन्यतः दस सागरोपम की होती है। १६५. छठी- (तमःप्रभा पृथ्वी) में (रहने वाले नारकियों की) 'आयु-स्थिति' उत्कृष्टतः बाईस सागरोपम की, तथा जघन्यतः सत्रह सागरोपम की होती है। १६६.सातवीं (तमस्तमप्रभा पृथ्वी) में (रहने वाले नारकियों की) 'आयु-स्थिति' उत्कृष्टतः तैंतीस सागरोपम की, तथा जघन्यतः बाईस सागरोपम की होती है। १६७.नारकी (जीवों) की जो (एकभवीय) आयु-स्थिति कही गई है, वही उनकी जघन्य व उत्कृष्ट (दोनों प्रकार की) 'काय-स्थिति' होती १६८. नैरयिक जीवों का अपने काय (नारकी शरीर) को छोड़ देने पर, (और अन्य कायों में उत्पन्न होकर पुनः उसी नारकी काय में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके उक्त निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) 'अन्तर-काल' उत्कृष्टतः अनन्त काल, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त होता है। १६६.इन (नारकी जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टियों से हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं। १७०. (त्रस जीवों में) वे पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्च जीव दो प्रकार के कहे गये हैं- (१) सम्मूर्छिम तिर्यञ्च, और (२) गर्भज तिर्यञ्च । अध्ययन-३६ ८१५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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