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१३७. कुन्थु (सूक्ष्म जीव-विशेष), चींटी, खटमल, मकड़ी, दीमक,
तृणाहारक, काष्ठाहारक (घुन आदि), मालुक, मालुगा, और पत्राहारक,
| १३८. कपास व उनकी अस्थियों में पैदा होने वाले जीव, तिन्दुक, त्रपुष
मिंजक, शतावरी, गुल्मी (कानखजूरा), और इन्द्रकायिक (षट्पदी-जूं) - इन्हें (भी-त्रीन्द्रिय) जानना चाहिए ।
१३६. (इसके अतिरिक्त, त्रीन्द्रियों में) इन्द्रगोप (बीरबधूटी) इत्यादि
अनेक प्रकार के (जीव) होते हैं। वे सब समस्त लोक में नहीं, (अपितु) लोक के एकदेश (भाग) में (ही व्याप्त - अवस्थित) कहे
गये हैं। १४०. (वे त्रीन्द्रिय जीव) 'सन्तति' (प्रवाह-परम्परा) की दृष्टि से अनादि
और अनन्त होते हैं, (किन्तु एकत्व-वैयक्तिक) 'स्थिति' की दृष्टि से सादि और सान्त (भी) हैं ।
१४१. त्रीन्द्रिय जीवों की आयु-स्थिति (एकभव में जीवन की
काल-मर्यादा) उत्कृष्टतः उनचास दिनों की, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की कही गई है।
। १४२. (अपने) उस (त्रीन्द्रिय) काय को नहीं छोड़ें (और उसी काय में
निरन्तर उत्पन्न होते रहें) तो त्रीन्द्रिय जीवों की काय-स्थिति उत्कृष्टतः संख्यात काल की, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती
१४३. त्रीन्द्रिय जीवों का (अपने त्रीन्द्रिय काय को छोड़ देने पर, और
अन्य कायों में उत्पन्न होने के बाद, पुनः उसी त्रीन्द्रिय काय में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके उक्त निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) 'अन्तर-काल' उत्कृष्टतः अनन्त काल का, तथा जघन्यतः
अन्तर्मुहूर्त का होता है। अध्ययन-३६
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