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८६. (अपने) उस (अप्काय) को नहीं छोड़ें (और उसी काय में
निरन्तर उत्पन्न होते रहें) तो (उन) अप्काय जीवों की 'काय-स्थिति' (काल-मर्यादा) उत्कृष्टतः असंख्यात काल की,
तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है। ६०. अप्काय जीवों का, अपने काय (अप्काय) को (एक बार) छोड़ देने
पर (और अन्य कायों में उत्पन्न होकर, पुनः अप्काय में उत्पन्न होने की स्थिति में उनके उक्त निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) अन्तर-काल
उत्कृष्टतः अनन्त काल का, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त का होता है। ६१. इन (अप्काय जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की
दृष्टियों से (तो) हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं।
६२. वनस्पति जीवों के दो प्रकार हैं- (१) सूक्ष्म, तथा (२) बादर ।
इसी प्रकार, (उन दोनों के) पुनः दो-दो भेद हैं- (१) पर्याप्त, और (२) अपर्याप्त ।
६३. (वनस्पति जीवों में) जो बादर पर्याप्त होते हैं, वे दो प्रकार के
कहे गये हैं- (१) साधारण शरीर, और (२) प्रत्येक शरीर ।
६४. (एक शरीर में एक-एक जीव अधिष्ठित रहता हो- ऐसे अनेक
जीवों की पिण्ड-भूत रूप जो वनस्पतियां होती हैं) उन ‘प्रत्येक शरीर' (नामक) वनस्पति जीवों के अनेक प्रकार बताये गये हैं, (जैसे) (१) वृक्ष (आम आदि), (२) गुच्छ (पत्तियों या मात्र पतली टहनियों वाली वनस्पतियां, जैसे बैंगन के पौधे आदि), (३) गुल्म (एक जड़ से कई तनों के रूप में निकलने वाले पौधे, जैसे कैर
आदि), (४) लता (वृक्ष पर चढ़ने वाली चम्पक आदि लताएं), (५) बल्ली (जमीन पर फैलने वाली, करैला, ककड़ी आदि की
बेलें), और (६) तृण (घास-दूब आदि)। अध्ययन-३६
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