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८३. इन (पृथ्वीकायिक जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श व संस्थान
की दृष्टियों से (तो) हजारों (अवान्तर) भेद हो जाते हैं ।
८४. अप्काय जीव दो प्रकार के होते हैं- (१) सूक्ष्म, और (२) बादर ।
इसी प्रकार उन दोनों के पुनः दो-दो भेद हैं- (१) पर्याप्त, और (२) अपर्याप्त।
८५. (अप्काय जीवों में) जो बादर पर्याप्त होते हैं, वे पांच प्रकार के
कहे गये हैं- (१) शुद्ध (मेघ का) जल, (२) ओस, (३) हरतनु (प्रातःकाल तृण-घास के अग्रभाग पर बिन्दु रूप में दिखाई देने वाला जल), (४) धुंध-कुहासा सर्दी के महीनों में होने वाली सूक्ष्म
वर्षा, और (५) हिम (बर्फ)। ८६. उनमें सूक्ष्म (अप्काय जीव) एक ही प्रकार के होते हैं, और
नानात्व (बहुविधपने) से रहित होते हैं। सूक्ष्म (अप्काय) समस्त लोक में, तथा बादर (जीव) लोक के एक भाग में (व्याप्त-अवस्थित) होते हैं ।
८७. (वे अप्काय जीव) 'सन्तति' (प्रवाह/परम्परा) की दृष्टि से अनादि
और अनन्त हैं, (किन्तु एकत्व-वैयक्तिक) 'स्थिति' की अपेक्षा से सादि और सान्त भी होते हैं।
८८. अप्काय जीवों की (एकभव में), आयु-स्थिति उत्कृष्टः सात हजार
वर्षों की, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है।
अध्ययन-३६
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