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७७. ये छत्तीस भेद खर (कठोर) पृथ्वीकाय के कहे गये हैं। उन
(पृथ्वीकायों) में सूक्ष्म (पृथ्वीकाय तो) एक प्रकार के (ही) हैं (इसलिए) नानात्व (बहुविधत्व) से रहित हैं।
७८. सूक्ष्म (पृथ्वीकाय) समस्त लोक में, और बादर (पृथ्वीकाय)
लोक के एकदेश (भाग, रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में व्याप्त) हैं। इस (क्षेत्र-सम्बन्धी विभाग) के बाद मैं उनके चतुर्विध 'काल-विभाग' (काल की दृष्टि से भेदों) का कथन करूंगा
७६. (ये पृथ्वीकायिक जीव) सन्तति/परम्परा/ प्रवाह की दृष्टि से
अनादि और अनन्त भी हैं। (किन्तु) (एकत्व-वैयक्तिक) स्थिति की दृष्टि से वे सादि और सान्त भी हैं।
८०. पृथ्वीकायिक जीवों की (एकभवीय) आयु-स्थिति उत्कृष्टतः बाईस
हजार वर्षों की, तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है।
८१. (अपने) उस (पृथ्वीकाय) को नहीं छोड़ें (और उसी काय में
निरन्तर उत्पन्न होते रहें) तो (उन) पृथ्वीकाय जीवों की काय-स्थिति (काल-मर्यादा) उत्कृष्टतः असंख्यात काल की, तथा
जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है। ८२. पृथ्वीकायिक जीवों का, अपने (पृथ्वीकाय) को छोड़ देने पर
(और अन्य कायों में उत्पन्न होने के बाद पुनः उसी पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने की स्थिति में, उनके इस निष्क्रमण व आगमन के मध्य का) अन्तर-काल उत्कृष्टतः अनन्त काल, और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त होता है।
अध्ययन-३६
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