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१२. (अग्नि) फैलने वाली, सभी ओर (जलाने में समर्थ) धाराओं
(ज्वालाओं) वाली, तथा अनेक प्राणियों का नाश कर देने वाली (होती है, और) अग्नि के समान (कोई दूसरा) शस्त्र नहीं है, इसलिए (मुनि) अग्नि को प्रज्वलित न करे ।
१३. भिक्षु के लिए (तो) सुवर्ण व मिट्टी का ढेला- एक जैसा होता
है, इसलिए वह (वस्तुओं के) क्रय-विक्रय से भी विरत रहे और सोने व चांदी (एवं धन-धान्य आदि) को (तथा उनके क्रय-विक्रय को) मन से भी न चाहे, और
१४. (परकीय वस्तु की खरीद करने वाला 'खरीददार' होता है और
(अपनी वस्तु को) बेचने वाला 'वणिक' (व्यापारी) होता है, इसलिए खरीदने-बेचने में प्रवृत्त (व्यक्ति) वैसा (अर्थात् आगमोक्त लक्षणों वाला सच्चा) साधु नहीं होता।
१५. भिक्षु को भिक्षा-वृत्ति वाला होकर भिक्षा ही लेनी चाहिए, (मूल्य
देकर कोई वस्तु) खरीदनी नहीं चाहिए। (वास्तव में) खरीदने व बेचने (दोनों) में महादोष है, भिक्षा-वृत्ति (ही) सुख देने वाली
१६. (इसलिए) 'सूत्र' (आगम में निर्दिष्ट नियमों) के अनुरूप (ही)
मुनि अनिन्दित व सामुदानिक 'उच्छ' (अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा) की गवेषणा करे, और (भिक्षा के) लाभ व अलाभ में सन्तोष-भाव रखते हुए 'पिण्डपात' (भिक्षा-हेतु पर्यटन) करे ।
१७. महामुनि लोलुप न हो, और रस में आसक्त न हो, जिह्वा
(इन्द्रिय) पर निग्रह करने वाला हो, एवं अनासक्त रहे, वह रस (स्वाद) के लिए नहीं, (अपितु संयमी जीवन के) निर्वाह हेतु आहार करे।
अध्ययन-३५
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