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प्रत्येक लेश्या का अपना रूप होता है। नाम होता है। रंग होता है। रस होता है। गन्ध होती है। स्पर्श होता है। परिणाम होता है। लक्षण होता है। स्थान होते हैं। समय-सीमा होती है। देव, मनुष्य, नरक व तिर्यंच गतियों में भिन्न-भिन्न स्थिति होती है। प्रत्येक लेश्या से जीव की दुर्गति या सुगति के द्वार खुलते हैं।
___ शुभ और अशुभ श्रेणियों में वर्गीकृत लेश्याएँ जीवन में विवेक के प्रयोग की स्पष्ट सम्भावनायें हैं। विवेक के प्रयोग से कोई भी अपने लिये शुभ लेश्या का निर्धारण कर सकता है। मन-वचन-काया से क्रोध-मान-माया-लोभ को निरन्तर मन्द करते चले जाना ही वस्तुतः अशुभ से शुभ, शुभ से शुभतर और शुभतर से शुभतम लेश्या के निर्माण की ओर अग्रसर होना है।
मनुष्य इस प्रक्रिया को साकार कर सकता है। वह हिंसा, दुःसाहस, क्रूरता, छल-कपट, चोरी, झूठ, असंयम, प्रमाद व मिथ्यात्व आदि दुष्प्रवृत्तियों का आचरण कर अपने लिये अशुभ लेश्या का व्यवस्थापक भी हो सकता है और अहिंसा, पाप-भीरुता, कोमलता, सरलता, ईमानदारी, सत्य, जितेन्द्रियता, अप्रमत्तता व सम्यक्त्व आदि सदप्रवृत्तियों का आचरण कर शभ लेश्या का जनक भी हो सकता है। भाव लेश्या में परिवर्तन के द्वारा वह द्रव्य लेश्या में परिवर्तन भी कर सकता है। अपने कर्म-बन्ध को नियंत्रित भी कर सकता है। आस-पास के वातावरण को प्रभावित भी कर सकता है।
सम्यक् चारित्र और तप के द्वारा साधक को जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे शुभ भाव लेश्या के शुभ द्रव्य-लेश्यात्मक रूप हैं। तपस्वी की देह को छू कर बहने वाली हवा भी रोगहारिणी हो जाया करती है। गौतम स्वामी का शरीर भी लब्धियों का भण्डार था। इतिहास में ऐसे अनेक तपस्वियों का वर्णन मिलता है, जिनकी लब्धियों के प्रभाव से अनेक उपद्रव शांत हुए। चमत्कार प्रतीत होने वाली उन सभी घटनाओं की पृष्ठभूमि में वस्तुतः लेश्या-विज्ञान सक्रिय रहा। महापुरुषों की भाव-लेश्याएँ इतनी निर्मल हो गईं कि वे द्रव्यलेश्याओं के रूप में भी उजागर हुईं।
उन लेश्याओं के साथ-साथ अशुभ लेश्याओं का भी सांगोपांग ज्ञान यह अध्ययन प्रदान करता है। शुभ लेश्याओं की दिशा में यह प्रेरित भी करता है और अशुभ लेश्याओं से सावधान भी। अपनी तथा अन्य सभी की वास्तविक पहचान का आधार प्रदान करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
अध्ययन-३४
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