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२६. नोकषायमोहनीय- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, वेद- ये सात भेद नोकषायों
के हैं। यदि 'वेद', स्त्रीवेद, पुरुषवेद व नपुंसक वेद-ये तीन भेद मान कर गिने जाएं तो नोकषायों के नौ भेद हो जाते हैं। इनसे सम्बन्धित मोहनीय कर्म भी
सात या नौ प्रकार का हो जाता है। २७. योग्य पात्र व देय सामग्री के होते हुए भी, दान के अतिशयित फल की जानकारी
होने पर भी, दान देने की इच्छा या प्रवृत्ति का न होना, इसमें 'दानान्तराय' कर्म हेतु है। उदारचित्त वाता के तथा याचना-दक्ष याचक के होते हुए भी, याचक को लाभ न होना-इसमें 'लाभान्तराय' कर्म हेतु है। आहारादि भोग्य वस्तु तथा वस्त्रादि उपभोग्य वस्तु के होते हुए भी, भोग न सकने की परिस्थिति में 'भोगान्तराय' व 'उपभोगान्तराय' (क्रमशः) हेतु हैं। शरीर की नीरोगता व यौवनादि-सामर्थ्य के होते हुए भी, एक सरलतम कार्य तक न कर सकने में 'वीर्यान्तराय' कर्म हेतु
२८. कर्म-बन्ध के चार प्रकार हैं- (१) प्रकृतिबन्ध, (२) प्रदेशबन्ध, (३) स्थिति-बन्ध,
और (४) अनुभाग बन्ध। यहाँ चार से अठारह गाथाओं में 'प्रकृतिबन्ध' का वर्णन किया जा चुका है। प्रदेशाग्र (द्रव्य) व क्षेत्र की दृष्टि से बन्ध का निरूपण (१७-१८ गाथाओं में) किया गया है, जो ‘प्रदेश-बन्ध' के अन्तर्गत समझना चाहिए। 'काल' की दृष्टि से बन्ध का वर्णन 'स्थितिबन्ध' का ही प्रकारान्तर से निरूपण (गाथा-१६-२३ में) किया गया है । 'भाव' की दृष्टि से बन्ध का जो निरूपण है, वह 'अनुभाग' (या अनुभाव) बन्ध से सम्बन्धित है, जिसका निरूपण भी (गाथा-२४ में) किया गया है। (१) प्रकृतिबन्ध- जीव द्वारा गृहीत/बद्ध कर्म-पुद्गलों में पृथक्-पृथक् स्वभाव व शक्ति का निर्धारित होना 'प्रकृति-बन्ध' है। कषाय व योग से आकृष्ट कर्म-पुद्गल आत्मा के प्रदेशों से एकक्षेत्रावगाढ़ होकर, 'ज्ञानावरणीय' आदि रूपों में परिणत हो जाते हैं। इन स्वभावों के निर्धारण में बध्यमान जीव के 'योग' (मन-वचन-शरीर सम्बन्धी प्रवृत्ति) का प्रमुख योगदान होता है । (२) प्रदेशबन्ध- कर्म-दलों में परमाणुओं की संख्या का न्यून व आंधक नियत होना 'प्रदेशबन्ध' है। इस संख्या की न्यूनाधिकता के निर्धारण में भी 'योग' का महत्वपूर्ण योगदान होता है। (३) स्थितिबन्ध- जीव-गृहीत कर्म-पुद्गलों में, अपने स्वभावों का त्याग न करते हुए, जीव के साथ रहने की काल-मर्यादा का निर्धारण 'स्थिति बन्ध' है। स्थिति काल की पूर्णता पर वह कर्म स्वतः नष्ट हो जाता है। कुछ-एक निमित्तों से, कदाचित् स्थिति-काल न्यून व अधिक भी हो जाता है। उक्त स्थिति-काल का
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उत्तराध्ययन सूत्र