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१२. आयु कर्म चार प्रकार का है- (१) नैरयिक/नारकी (आयुकर्म),
(२) तिर्यग् आयु, (३) मनुष्यायु, तथा चौथा (भेद) (४) देवायु (कर्म)।
१३. नाम कर्म के दो भेद कहे गए हैं- (१) शुभ (नाम कर्म) तथा
(२) अशुभ (नाम कर्म)। (इनमें) शुभ (नाम कर्म) के अनेक भेद होते हैं, और इसी तरह अशुभ (नाम कर्म) के भी (अनेक भेद होते हैं।
१४. गोत्र कर्म को दो प्रकार का कहा गया है:- (१) उच्च (गोत्र कर्म),
और (२) नीच (गोत्र कर्म)। (इनमें) उच्च (गोत्र कर्म) के आठ भेद होते हैं, और इसी तरह, नीच (गोत्र कर्म) के भी (आठ भेद) बताए गए हैं।
१५. (१) दान (अन्तराय), (२) लाभ (अन्तराय), (३) भोग
(अन्तराय), (४) उपभोग (अन्तराय), (५) वीर्य (अन्तराय)- (ये) संक्षेप से अन्तराय (कर्म) के पांच भेद बताए गए हैं । २७
१६. (पूर्वोक्त आठ कर्मों की) ये मूल प्रकृतियां तथा उत्तर-प्रकृतियां
कही गई हैं। इससे आगे (इनके) 'प्रदेशाग्र' (कर्म-परमाणु रूप द्रव्य-संख्या), 'क्षेत्र', 'काल' व 'भाव' ('अनुभाव', इनकी दृष्टि से कर्मों के स्वरूप आदि) को२८ सुनो।
१७. सभी कर्मों का ‘प्रदेशाग्र' (एक समय में आत्मा के साथ बंधने
वाले पुद्गलात्मक कर्म-परमाणुओं का परिमाण) अनन्त होता है, जिसे 'ग्रन्थिग' (मिथ्यात्व व राग-द्वेष की ग्रन्थि का भेद न कर सकने वाले, सम्यक्त्व न प्राप्त कर सकने वाले, अभव्य) प्राणियों से (अनन्तगुणा) अधिक, तथा सिद्धों (की संख्या) से अन्तर्वर्ती (उनसे न्यून, उनके अनन्तवें भाग जितना) कहा गया है।
अध्ययन-३३
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