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________________ अध्ययन-सार : ज्ञान-प्राप्ति व अज्ञान, मोह, राग, द्वेष-परिहार से सर्व-दु:ख-मुक्ति होती है। मुक्ति-कामी साधक सेवा, स्वाध्याय व सूत्रार्थ-मनन करे व अज्ञानी-संग से दूर रहे। परिमित व एषणीय आहार, बुद्धिमान योग्य सहायक व विविक्तशयनासन की ही इच्छा करे। मोह से तृष्णा व तृष्णा से मोह उत्पन्न होता है। मोह से व राग-द्वेष से कर्म तथा कर्म से दुःख उत्पन्न होता है। दुःख नष्ट करने का उपाय मोह, तृष्णा व लोभ को नष्ट करना है। रस-सेवन-आधिक्य से विषय-भोग-पीड़ा होती है। विविक्त शयनासन, अल्पाहार व इन्द्रिय-दमन इस पीड़ा का उपचार है। कामाकर्षण को जीतना दुस्तर है। इसे जीत लेने पर सभी कमजोरियां जीतना सरल है। मनोज्ञ विषयों में राग व अमनोज्ञ विषयों से द्वेष साधक न करे। दोनों स्थितियों में सम-भावी वीतरागी होता है। रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श में राग व द्वेष रखने वाला अज्ञानी, हिंसक, चोर, लोभी, कपटी, झूठा, अतृप्त, आश्रय-विहीन, दु:ख-परम्पराओं का व्यवस्थापक और कर्म-मल-लिप्त हो जाता है। विरक्त साधक संसार में रहते हए भी राग-द्वेष-यक्त संसार में लिप्त नहीं होता। उसे कभी शोक नहीं होता। मनोज्ञ भावों में राग और अमनोज्ञ भावों में द्वेष रखने वाला आत्म-विनाशक होता है। इसमें भावों को कोई दोष नहीं। इन्द्रियों व मन के विषय रागी के लिये दु:ख के कारण होते हैं, वीतरागी के लिये नहीं। काम-भोगासक्ति कषायों, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, स्त्री-पुरुष व नपुंसक वेद तथा अन्य विकारों को बढ़ाती है। साधु न तो शिष्य की इच्छा करे और न ही अपने तप के प्रभाव की। इस से विकार-ग्रस्तता उत्पन्न होती है। सम्यक् चिन्तन तथा सम्यक् संकल्प से काम-तृष्णा क्षीण होती है। साधक सर्व-कर्म-क्षय कर मुक्त हो जाता है। सर्वकालिक समस्त दु:खों से मुक्ति के इस मार्ग को अपना कर साधक अनन्त सुख-सम्पन्न होता है। 00 ७०२ उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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