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________________ * Karna ६५. (मनोज्ञ) 'भावों' से अतृप्त रहने वाला, तथा उसके परिग्रह (अर्थात् विषय-सेवन के सम्बन्ध में संकल्प-विकल्प-स्मरण व दुर्भाव आदि करने में, या अपने मनोरथ के अनुकूल पदार्थों के संग्रह) करने में तृष्णा के वशीभूत (वह प्राणी परकीय वस्तुओं की) चोरी करता है, उसके (उक्त) लोभ-दोष के कारण, माया (कपट) व असत्य ( आचरण की प्रवृत्तियों) में वृद्धि होती है। (किन्तु) तब (झूठ व कपट आचरण के बाद) भी, उसे दुःख से मुक्ति नहीं मिल पाती । ६६. असत्य (आचरण) के अनन्तर, उससे पूर्व, तथा उसके आचरण के समय भी (वह अज्ञानी) दुःखी होता है, और इसका परिणाम भी दुःखद होता है । इस तरह, (मनोज्ञ) 'भाव' से अतृप्त रहने एवं चोरी करने वाला (वह प्राणी) दुःखी व निराश्रित/ असहाय हो जाता है । ६७. इस प्रकार (मनोज्ञ) 'भाव'-सम्बन्धी अनुराग रखने वाले मनुष्य को किंचिन्मात्र भी, एवं किसी समय भी, कहां से सुख (प्राप्त) होगा? जिस (मनोज्ञ भाव के अनुकूल वस्तु की प्राप्ति) के लिए (वह इतना) कष्ट उठाता है, उस (वस्तु को प्राप्त होने पर, उस) के उपभोग में भी (उसे) क्लेश व दुःख (ही प्राप्त होता) है। ६८. इसी तरह, (अमनोज्ञ) 'भाव' के प्रति द्वेष रखने वाला (जीव भी, उत्तरोत्तर) दुःखों के समूह की परम्परा को प्राप्त करता है । द्वेष से पूर्ण चित्त वाला वह (जीव) जिस-जिस (अशुभ) कर्म को उपार्जित करता (बांधता) है, वह (कर्म) भी अपने 'विपाक' (फलोदय) के समय (इस जन्म में या परलोक में) पुनः दुःख रूप (व दुःख का कारण) बन जाता है । ६६. (मनोज्ञ व अमनोज्ञ) 'भाव' के प्रत्ति विरक्त (व द्वेष-रहित) मनुष्य शोक-रहित होता हुआ, संसार के मध्य रहते हुए भी, इस दुःख समूह की (उत्तरोत्तर) परम्परा से, उसी तरह लिप्त नहीं हुआ करता, जिस तरह कमलिनी का पत्ता जल (में रहता हुआ भी, जल) से लिप्त नहीं होता । अध्ययन- ३२ र ६६५
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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