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________________ ५२. वह अज्ञानी (हित-अहित के विवेक से शून्य जीव) रुचिर (प्रिय) गन्ध (को सूंघने) में अत्यन्त अनुरक्त हो जाता है, और जो प्रिय न हो उस (गन्न) में द्वेष करता है, (फलस्वरूप, दोनों ही स्थितियों में वह) दुःखों के समूह (या दुःखमयी पीड़ा) को प्राप्त करता है। (किन्तु) विरक्त मुनि उस (गन्ध से, या रागादि-जनित दुःखद परिणाम) से लिप्त नहीं हुआ करता। क्लिष्ट (राग से बाधित/ग्रस्त) एवं स्वार्थ को ही महत्व देने वाला (वह) अज्ञानी (जीव, प्रिय) सुगन्ध की आशा में उसका अनुसरण करता हुआ (पीछे दौड़ता हुआ) अनेकविध चर-अचर (त्रस-स्थावर) प्राणियों की हिंसा करता है, तथा विविध प्रकारों से उन्हें परिताप देता व कष्ट पहुंचाता है। ५४. सुगन्ध के प्रति अनुराग व (ममत्व-रूप) परिग्रह (की वृत्ति) के कारण किये जाने वाले, और सुगन्ध या सुगन्धयुक्त पदार्थ (का) उत्पादन/उपार्जन, संरक्षण एवं सम्यक् उपयोग/उपभोग करते हुए, तथा उसके विनाश व वियोग की स्थिति में उस (प्राणी) को सुख.कहां (मिल सकता है)? (उस सुगन्ध का) उपभोग करते समय भी (उस प्राणी को) तृप्ति नहीं मिल पाती। ५५. सुगन्ध से अतृप्त होता हुआ (अज्ञानी प्राणी) उस (सुगन्ध) के परिग्रह में (क्रमशः) आसक्त व अत्यासक्त होता हुआ कभी सन्तुष्टि प्राप्त नहीं कर पाता । असन्तुष्टि-दोष के कारण (वह) दुःखी एवं लोभ से व्याकुल होता हुआ (सुगन्धयुक्त) परकीय अदत्त वस्तु को ग्रहण करने (अर्थात् चुराने) लगता है। ५६. सुगन्ध से अतृप्त रहने वाला, तथा उसका परिग्रह करने में तृष्णा के वशीभूत (वह प्राणी परकीय सुगन्धित-वस्तुओं की) चोरी करता है, उसके (उक्त) लोभ-दोष के कारण, माया (कपट) तथा असत्य (आचरण की प्रवृत्तियों) में वृद्धि होती है। (किन्तु) तब (झूठ व कपट आचरण के बाद) भी, उसे दुःख से मुक्ति नहीं मिल पाती। अध्ययन-३२ ६७७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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