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________________ ११. जिस प्रकार, प्रचुर ईन्धन वाले जंगल में (प्रचण्ड) वायु के (झोंकों के) साथ (प्रदीप्त होती हुई) दावाग्नि (शीघ्र व सरलता से) शान्त नहीं होती, उसी प्रकार अत्यधिक आहार करने वाले (साधक) की इन्द्रियों की (विषय-प्रवृत्ति रूप 'राग' की) अग्नि भी (उपशान्त नहीं होती, और इस प्रकार प्रकाम-भोजन तथा उक्त राग-अग्नि) किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं है। १२. (स्त्री, पशु, नपुंसक आदि से) शून्य-एकान्त 'वसति' (उपाश्रय) में निवास से (स्वयं को) नियंत्रित रखने वाले, अल्प आहार करने वाले, तथा जितेन्द्रिय (मुनियों) के चित्त को राग (व द्वेष रूपी) शत्रु उसी तरह पराजित नहीं कर पाता, जिस तरह औषधि (के सेवन) से पराजित (शान्त) हुई व्याधि (शरीर को पुनः आक्रान्त नहीं कर पाती) । १३. जिस तरह, बिडाल (बिलाव) के रहने के स्थान के पास, चूहों का निवास प्रशस्त नहीं हुआ करता, उसी तरह, स्त्रियों के निवास-स्थान के मध्य (समीप) में ब्रह्मचारी का निवास (प्रशस्त व) उपयुक्त नहीं होता। १४. तपस्वी श्रमण (मुनि) स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास (वेशविन्यास व कामुक चेष्टा), हास्य, (मधुर) आलाप, इंगित (संकेत आदि विविध चेष्टाओं) या कटाक्ष-दृष्टि को (अपने) चित्त में स्थापित कर (उनसे प्रभावित होकर उन्हें) देखने का व्यवसाय (संकल्प, इच्छा या प्रयत्न) न करे । १५. सर्वदा (आजीवन) ब्रह्मचर्य (की साधना) में निरत रहने वाले (मुनि) के लिए स्त्रियों (के अंगोपांग आदि) को (राग-भाव से) न देखना, (उनकी प्राप्ति की) चाह न रखना, (उनके रूप-सौन्दर्य आदि का) चिन्तन न करना, (उनके नाम व गुण आदि का) कीर्तन न करना (-ये सब) 'आर्य' (श्रेष्ठ धर्म स्वरूप) 'ध्यान' (की साधना) के लिए उपयुक्त व हितकारी होते हैं। अध्ययन-३२ ६६१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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