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५. यदि (अपने से) अधिक गुणों वाला या समान गुणों वाला (कोई)
'निपुण' (कार्य-अकार्य का ज्ञाता) सहायक (शिष्य, साथी आदि) न मिले तो पापों का त्याग करते हुए, काम-भोगों में अनासक्त रहते हुए, एकाकी ही विचरण करे ।
६. जिस प्रकार बलाका (बगुली) अण्डे से उत्पन्न होती है, और
जिस तरह अण्डा बलाका से पैदा होता है, (इन दोनों में विद्यमान) इसी (परस्पर-कार्यकारण भाव की) तरह ‘तृष्णा' को 'मोह' का 'आयतन' (उद्भव-स्थान) और 'मोह' को भी तृष्णा
का 'आयतन' (उत्पत्ति-स्थान) कहा जाता है। ७. राग और द्वेष (इन) को कर्म के (उत्पादक) 'बीज', और कर्म
को 'मोह' से उत्पन्न कहा जाता है। कर्म को जन्म-मरण का मूल,तथा जन्म-मरण को 'दुःख' (का वास्तविक/मूल कारण) कहा जाता है।
८. जिसके 'मोह' नहीं होता, उसका 'दुःख' (भी) नष्ट हो जाता
है। जिसके तृष्णा नहीं होती, उसका मोह नष्ट हो जाता है। जिसके लोभ नहीं होता, उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है, और जिसके पास (परिग्रह-रूप में) कुछ भी नहीं है (अर्थात् जो 'अकिंचन' है) उसका लोभ नष्ट हो जाता है।
६. राग, द्वेष तथा मोह को समूल उन्मूलन करने के इच्छुक (साधक)
को जिन-जिन उपायों का अवलम्बन लेना चाहिए, उनका में क्रमशः कथन करूंगा।
१०. रसों का अत्यधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि
(बिना उचित कारण के तथा अतिमात्रा में सेवित किये गये) रस प्रायः मनुष्यों (के लिए चित्त-विक्षेप के कारण होते हुए, उनकी इन्द्रियों के तथा मोहाग्नि व कामाग्नि) के दृप्तिकारक-उत्तेजक होते हैं। उत्तेजित व्यक्ति को 'काम' (शब्द आदि विषय) उसी प्रकार आक्रान्त करते (व सताते) हैं जिस प्रकार स्वादिष्ट फल
वाले वृक्ष को पक्षी (पीड़ित करते हैं और क्षति पहुंचाते हैं)। अध्ययन-३२
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