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________________ भी रोगी, वृद्ध व अशक्त आदि की सेवा न करना, (२६) ज्ञान- चारित्रादि-विघातक व कामोत्पादक कथाओं का प्रयोग करना, (२७) जादू टोना, मंत्र-वशीकरण आदि का प्रयोग करना, (२८) इहलौकिक व पारलौकिक विषय-सूखों की निन्दा करके, या विषय-भोगों का त्याग करके भी छिपे-छिपे उनका सेवन करना, उनमें आसक्त रहना, (२६) देवों का साक्षात्कार न होने पर भी यह कहना कि मुझे देव-दर्शन होता है, (३०) देवों की युति, ऋद्धि, बल, वीर्य आदि का अवर्णवाद करना, उनका उपहास करना । २४. सिद्धों के इकतीस गुणों का निरूपण कई प्रकार से किया गया है । आठ कर्मों के क्षय से सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है। उन आठ कर्मों के इकतीस भेद होते हैं- ज्ञानावरणीय के ५, दर्शनावरणीय के ६, वेदनीय के २, मोहनीय के २, आयु के ४, नाम कर्म के २, गोत्र कर्म के २, अन्तराय कर्म के ५, कुल इकत्तीस भेद हो जाते हैं। इन इकत्तीस कर्मों के क्षय से सिद्ध इकतीस गुणों से युक्त माने जाते हैं। अथवा-५ संस्थान, ५ वर्ण, २ गन्ध ५ रस, ८ स्पर्श, ३ वेद, शरीर, आसक्ति, पुनर्जन्म- इन इकतीस दोषों के क्षय से इकतीस गुण प्रकट हुए माने जाते हैं। २५. शुभ व्यापार रूप योगों को मुख्यतः बत्तीस रूपों में परिगणित किया गया है। वे योग इस प्रकार हैं-(१) आलोचना, (२) अप्रकटीकरण (किसी के दोषों की आलोचना सुनकर अन्य के सामने न कहना), (३) संकट में धर्म-दृढता. (४) अनिश्रित या आसक्ति-रहित तपोपधान. (५) (सूत्रार्थ ग्रहण) शिक्षा और प्रतिलेखना आदि आचार शिक्षा का अभ्यास, (६) निष्प्रतिकर्मता (शरीर आदि की साजसज्जा न करना), (७) अज्ञातता (पूजा-प्रतिष्ठा का मोह त्याग कर गुप्त तप आदि करना), (८) निर्लोभता (६) तितिक्षा, (१०) आर्जव (११) शुचिता (सत्य व संयम की पवित्रता), (१२) सम्यक्त्व-शुद्धि, (१३) समाधि-(चित्त-प्रसन्नता), (१४) आचारोपगत (मायारहित आचार का पालन). १८) विनय. (१६) धैर्य (१७) संवेग (मोक्षाभिलाषा. या सांसारिक भोगों से भय), (१८) प्रणिधि (माया-शल्य से रहित), (१६) सुविधि (सदाचार का अनुष्ठान), (२०) संवर (पाप आस्रव से रहित), (२१) दोष शुद्धि, (२२) सर्वकामभोगविरक्ति, (२३) मूल गुणों का सम्यक् शुद्धपालन, (२४) उत्तरगुणों का सम्यक् शुद्ध पालन, (२५) व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग), (२६) अप्रमाद, (२७) प्रतिक्षण संयम-यात्रा में सजगता, (२८) शुभध्यान, (२६) मारणान्तिक वेदना होने पर भी धीरता, (३०) संग-परित्याग, (३१) प्रायश्चित्त ग्रहण करना, (३२) अन्तिम समय में संलेखना धारण करके मारणान्तिक आराधना करना । २६. आशातना (गुणी व पूज्य जनों की अवहेलना/निन्दा/तिरस्कार या यथार्थता का अपलाप) करने से सम्यक्त्व आदि की घात संभावित है। इस के तैंतीस भेद इस प्रकार बताये गए हैं:(१) अरिहंतों की आशातना, (२) सिद्धों की, (३) आचार्यों की, (४) उपाध्यायों की, (५) साधुओं की, (६) साध्वियों की, (७) श्रावकों की, (८) श्राविकाओं की, (६) देवों की, (१०) देवियों की, (११) इहलोक की, (१२) परलोक की, (१३) सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म की, (१४) देव-मनुष्य-असुर सहित समग्र लोक की, (१५) काल की, (१६) श्रुत की, (१७) श्रुतदेवता की, (१८) सर्वप्राणि भूत-जीव-सत्वों की, (१६) वाचनाचार्य की, (२०-३३, ज्ञान की १४ आशतनाएं ) (२०) व्याविद्ध (वर्ण-विपर्यास करना), (२१) व्यत्यानेडित (उच्चार्यमाण पाठ में ६५० उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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