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१६. जो भिक्षु 'सूत्रकृतांग' के तेईस अध्ययनों (के अभ्यास
में, तथा उनमें प्रतिपाद्य अर्थो के चिन्तन-मनन पूर्वक अनुष्ठान) में तथा रूपाधिक (रूप में बढ़े-चढ़े, सुन्दर रूप वाले और चौबीस प्रकार के देवों (अर्थात् चौबीस तीर्थंकरों के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखते हुए, उनकी आज्ञानुसार चलने में, और उनकी अश्रद्धा-अवज्ञा- आशातना आदि से बचने में, अथवा देव गतिनाम कर्म वाले २४ देवों के सुख भोगों की निन्दा-प्रशंसा से बचते हुए तटस्थ भाव रखने एवं उनकी यथावत् प्ररूपणा करने) में सतत यत्नशील (विवेक व यतना-पूर्वक सचेष्ट) रहा करता है, वह मण्डल/संसार
में नहीं ठहरता। १७. जो भिक्षु पच्चीका भावनाओं (के अनुपालन) में,१६ तथा
‘दशा' आदि (दशाश्रुत स्कन्ध के १० उद्देशों, बृहत्कल्प के छः उद्देशों व व्यवहार सूत्र के १० उद्देशों के अभ्यास में तथा उनमें प्रतिपाद्य अर्थों के चिन्तन-पूर्वक अनुष्ठान) में सतत यत्नशील (विवेक व यतना-पूर्वक सचेष्ट) रहा
करता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता। १८. जो भिक्षु (सत्ताईस प्रकार के) अनगार-गुणों के२० अनुष्ठान
में तथा (आचार) 'प्रकल्प' (के अठाईस अध्ययनों२१ के अभ्यास में, तथा उनमें प्रतिपाद्य अर्थों के चिन्तन-मननपूर्वक अनुष्ठान) में सतत यत्नशील (विवेक व यतना-पूर्वक सचेष्ट)
रहा करता है, वह मण्डल/संसार में नही ठहरता । १६. जो भिक्षु (उन्तीस प्रकार के) पाप श्रुतों२२ के 'प्रसंग'
(पठन-पाठन सम्बन्धी प्रवृत्ति आसक्ति) के त्याग तथा (तीस प्रकार के) मोह-स्थानों २३ (में प्रवृत्ति के त्याग) में सतत यत्नशील (विवेक व यतनापूर्वक सचेष्ट) रहा करता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता।
अध्ययन-३१
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