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११. जो भिक्षु उपासकों की (ग्यारह) प्रतिमाओं (के पालन) में, तथा
भिक्षुओं की (बारह) प्रतिमाओं (के पालन) में सतत यत्नशील (विवेक व यतना-पूर्वक सचेष्ट) रहा करता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता।
१२. जो भिक्षु (तेरह) क्रिया-स्थानों,१० (चौदह प्रकार के) भूत-ग्रामों
(जीव-समुदाय),” तथा (पन्द्रह प्रकार के) परमाधार्मिक देवों१२ के सम्बन्ध में सतत यत्नशील (अर्थात् अशुभ क्रियाओं से बचने तथा शुभ क्रिया का आश्रय लेने हेतु सभी जीवों की हिंसा से बचने व दयापूर्वक इनकी रक्षा में प्रवृत्ति हेतु, और परमाधार्मिक देवों में जन्म दिलाने वाले संक्लिष्ट परिणामों से बचने हेतु, या परमाधार्मिक देवों का अस्तित्व स्वीकार करते हुए उनके विषय में भी क्रोध-द्वेष आदि न करने हेतु, विवेक व यतना के साथ सचेष्ट) रहा करता है, वह 'मण्डल' चतुर्गति-रूप संसार में नहीं ठहरता।
१३. जो भिक्षु 'गाथाषोडशक' (सूत्रकृतांग के प्रथम स्कन्ध के १६
अंध्ययनों के अभ्यास में, तथा उनमें प्रतिपाद्य अर्थों के चिन्तन-मनन व उनके अनुष्ठान) में, तथा (सत्रह प्रकार के) असंयम'३ में सतत यत्नशील (विवेक व यतना-पूर्वक सचेष्ट) रहा
करता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता। १४. जो भिक्षु (अठारह प्रकार के) ब्रह्मचर्य (के अनुष्ठान) में,१४
ज्ञाताधर्मकथा सूत्र के (एक से लेकर उन्नीस तक के) अध्ययनों (के अभ्यास में, तथा उनमें प्रतिपाद्य अर्थों के चिन्तन-मनन पूर्वक अनुष्ठान) में, तथा (बीस प्रकार के) असमाधि-स्थानों (के त्याग) में,५ सतत यत्नशील (विवेक व यतनापूर्वक सचेष्ट) रहा
करता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता । १५. जो भिक्षु इक्कीस शबल-दोषों१६ (के त्याग) में, तथा बाईस प्रकार
के परीषहों (को सहने) में,१७ सतत यत्नशील (विवेक व यतनापूर्वक सचेष्ट) रहा करता है, वह 'मण्डल'/संसार में नहीं
ठहरता। अध्ययन-३१
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