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६. जो भिक्षु (स्त्रीकथा, भक्त-कथा, जनपद-देशकथा व राजकथा-इन
चार) विकथाओं, (क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चार) कषायों, (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह-इन चार) संज्ञाओं तथा (आर्त व रौद्र-इन) दो ध्यानों का नित्य त्याग किये हुए रहता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता।
७. जो भिक्षु (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह- इन पांच
महा-) व्रतों और (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप व परिष्ठापना-इन पांच) समितियों (के पालन) में तथा पांच इन्द्रियों के (शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श-इन पांच) विषयों (के त्याग) में एवं (कायिकी, अधिकरणकी, प्राद्वेषिकी, परितापनिकी व प्राणातिपातकी-इन पांच अशुभ) क्रियाओं' (के परित्याग) में नित्य यत्नशील (विवेक व यतनापूर्वक सचेष्ट) रहता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता।
८. जो भिक्षु (कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म व शुक्ल-इन) छ:
लेश्याओं (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति व त्रस-इन) छः कायों में तथा आहार करने (व उसके त्याग) के छ: छः कारणों२ में सतत यत्नशील (विवेक व यतनापूर्वक सचेष्ट) रहता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता ।
जो भिक्षु आहार-सम्बन्धी 'अवग्रह' रूप सात-प्रतिमाओं (संसृष्टा आदि सात पिण्डैषणाओं)२ (अथवा अवग्रहों- संसृष्टा आदि सात पिण्डैषणाओं, तथा सात अवग्रह-प्रतिमाओं) में तथा (इहलोक-भय
आदि) सात भय-स्थानों में सतत यत्नशील (विवेक व यतना-पूर्वक सचेष्ट) रहा करता है, वह मण्डल/संसार में नहीं
ठहरता। १०. जो भिक्षु (जाति, कुल, बल, रूप, तपश्चर्या, श्रुत-ज्ञान, लाभ,
ऐश्वर्य - इनसे सम्बन्धित आठ) मदों (के परिहार) में, ब्रह्मचर्य की (नौ) गुप्तियों (के पालन) में,६ तथा दस प्रकार के भिक्षुधर्मों (के अनुष्ठान) में सतत यत्नशील (विवेक व यतना-पूर्वक सचेष्ट) रहा करता है, वह मण्डल/संसार में नहीं ठहरता ।
अध्ययन-३१
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