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३६. सोने, बैठने व खड़े होने की स्थिति में जो भिक्षु
व्यापार-युक्त नहीं होता (शरीर को हिलाना-डुलाना बन्द कर देता है), यह ('व्युत्सर्ग' नामक आभ्यन्तर तप के 'द्रव्य व्युत्सर्ग' भेद से सम्बन्धित एक भेद') 'कायोत्सर्ग'
नामक छटा (आभ्यन्तर तप) कहा गया है। ३७. इस तरह, द्विविध (बाह्य व आभ्यन्तर) तप का, जो पण्डित
मुनि सम्यक् रूप से आचरण करता है, वह शीघ्र ही समस्त संसार (-बन्धनों) से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। -ऐसा मैं कहता हूँ।
१. क्षेत्र, वस्तु, शरीर, गण, उपधि, भक्त-पान, बाह्य व्युत्सर्ग हैं तथा कषाय, संसार, कर्म, आरव
ये भाव व्युत्सर्ग हैं।
'अध्ययन-३०
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