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________________ २६. बाह्य तप का यह वर्णन संक्षेप में किया गया है। यहां से (आगे मैं) क्रमपूर्वक 'आभ्यन्तर तप' का निरूपण करूंगा। ३०. १. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६ व्युत्सर्ग (-ये छ:) तप 'आभ्यन्तर तप' हैं । ३१. जो आलोचनार्ह (प्रतिक्रमणार्ह, तदुभयार्ह, आलोचना-प्रतिक्रमणार्ह), विवेकाह, व्यत्स तपोऽर्ह, छेदाह, मूलाह, अनवस्थापनाह व पारांचिकाह) आदि (रूपों में) दस प्रकार का होता है', जिसका भिक्षु (पाप-विशुद्धि-हेतु) भली-भांति आचरण करता है, उसे 'प्रायश्चित' (नामक आभ्यन्तर तप) कहा गया है। १. प्रमाद के कारण लगे दोषों का परिमार्जन करने की दृष्टि से संवेग व निर्वेद से युक्त मुनि द्वारा किया गया अनुष्ठान जिससे साधक के स्वयं के चित्त की निर्विकारता होती है और साथ ही साधर्मी व संघस्थ व्यक्तियों का मन भी अपराधी के प्रति शुद्ध हो जाता है, 'प्रायश्चित्त' तप कहलाता है। इसके दस भेद इस प्रकार हैं- १. आलोचनार्ह (गुरु के समक्ष, शुद्ध भाव से निज दोषों को प्रकट करना), २. प्रतिक्रमणार्ह (कृत पापों से निवृत्ति के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' मेरे पाप निष्फल हों) -इस प्रकार हृदय से भाव व्यक्त करते हुए, अशुभ योग में प्रवत्त अपनी आत्मा को शुभ योग में स्थापित करना, ३. तभयाह (आलोचना व प्रतिक्रमण दोनों करना), ४. विवेकाह (कथंचित् अशुद्ध आहार आदि के ग्रहण हो जाने का परिज्ञान हो जाए तो उस अशुद्ध आहार आदि को अलग कर त्याग देना या अशुभ परिणाम पैदा करने वाली कोई वस्तु प्रतीत हो तो उसका त्याग करना), ५. व्यत्सार्ह (चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति-पूर्वक कायोत्सर्ग करना) ६. तपोऽर्ह (अपराध के दण्ड के रूप में उपवास आदि करना), ७. छेदाह (अपराध करने पर, दण्ड-स्वरूप दीक्षा-पर्याय का छेद करना), ८. मूलार्ह (मल रूप से ही दीक्षा का छेद कर नई दीक्षा देना).६. अनवस्थापनाह (दीक्षा छेद कर अनिवार्यतः कुछ विशेष तप का अनुष्ठान करने के बाद ही नई दीक्षा देना) १०. पारांचिकाई (कुछ समय तक भर्त्सना व अवहेलना के बाद ही नई दीक्षा देना, यह उत्कृष्टतम 'प्रायश्चित' तप माना गया है।) अध्ययन-३० ६२७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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