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________________ २०. दिन के चारों पौरुषियों (प्रहरों) में जितना काल (भिक्षाचर्या हेतु नियत हो, या अभिग्रह-पूर्वक नियत कर लिया) हो उसी तरह (नियत/अभिगृहीत काल में ही) भिक्षा-चर्या करते हुए (मुनि) का यह 'काल की अपेक्षा से अवमौदर्य तप' जानना चाहिए। अथवा (आगमानुसार भिक्षाचर्या हेतु नियत तीसरे प्रहर में भी) कुछ समय न्यून (कम) या चतुर्थ भाग (या पांचवां भाग आदि) समय न्यून तीसरी पौरुषी (प्रहर) (में ही भिक्षाचर्या हेतु जाऊँगा- ऐसा अभिग्रह संकल्प करते हुए, अभिगृहीत काल-अवधि) में ही भिक्षा की एषणा करने वाले का, इस प्रकार (यह) 'काल की अपेक्षा से अवमौदर्य तप' होता है। २२. स्त्री या पुरुष, अलंकार-भूषित या अलंकार-रहित, अमुक (इतनी) आयु वाला, अमुक (इस-इस प्रकार के) वस्त्र (को धारण करने) वाला (हो, तभी मैं उससे भिक्षा लूंगा), २३. या (अमुक) विशेष वर्ण वाला या अमुक विशेष भाव (क्रोध, हर्ष आदि या कोई विशेष भावना) को न छोड़ता हुआ ही (कोई दाता मिलेगा, उसी से भिक्षा लूंगा अन्यथा नहीं, इस प्रकार के 'अभिग्रह' करे तो) इस प्रकार भिक्षाचर्या करने वाले का (यह) 'भाव की अपेक्षा से अवमौदर्य तप' जानना चाहिए। २४. द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव (की दृष्टियों से वर्णित ‘अवमौदर्य' तप) में जो भाव (नियमादि) बताए गए हैं, उन सब के द्वारा (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव-इन चतुर्विध ‘अवमौदर्य' से सम्बन्धित समस्त भावों से 'अवमौदर्य' करने वाला भिक्षु 'पर्यवचरक' ऊनोदरी तप वाला) होता है। अध्ययन-३० ६२३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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