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________________ REMITTANAH ६. उसी प्रकार, (नवीन) पाप कर्मों के आस्रव (प्रवाह) का निरोध कर देने पर, संयमी व्यक्ति का करोड़ों जन्मों में संचित किया हुआ कर्म (भी) तपश्चर्या के द्वारा निर्जीर्ण (क्षीण) कर दिया जा (सकता है। ७. उस 'तप' के दो भेद बताए गए हैं- १. बाह्य तथा २. आभ्यन्तर । (इनमें) बाह्य तप को छः प्रकार का और इसी प्रकार आभ्यन्तर तप को भी (छः प्रकार का) बताया गया है। ८. अनशन, ऊनोदरिता, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश और (प्रति-) संलीनता- (ये सब) बाह्य तप (के अन्तर्गत) हैं। ६. १. 'इत्वरिक' अनशन तथा २. मरणकाल (या यावत्कथिकअर्थात् आमरण अनशन, इस तरह) अनशन (तप) के दो भेद हैं । (इनमें) 'इत्वरिक' अनशन सावकांक्ष (नियतकालिक होने से अनशन समाप्ति के अनन्तर पुनः भोजन की आकांक्षा वाला) होता है और दूसरा (आमरण अनशन यावज्जीवन आहार का त्याग होने से, उक्त) आकांक्षा से रहित होता है। १०. (इनमें) जो 'इत्वरिक' तप है, वह १. श्रेणि तप, २. प्रतर तप, ३. अध्ययन-३० ११. पांचवां वर्ग- वर्ग तप, छठा प्रकीर्ण तप । 'इत्वरिक' तप को मनोभिलषित विविध / विचित्र फल (को देने की क्षमता) वाला जानना चाहिए। संक्षेप में छः प्रकार का हैघन तप, ४. वर्ग तप । ॐ ६१७ XXXCHAY
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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