SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 643
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को कर्मों से मुक्त करना। जीवन से कषायों को निर्मूल करना। शुद्ध होना। जीवन का सार पाना। बाह्य तप के अन्य पांच रूप भी साधक को इस लक्ष्य की ओर अग्रसर करते हैं। ऊनोदरी का अर्थ है-भूख से कम खाकर भूख को जीतना। भिक्षाचरी का अर्थ है-भिक्षा में जो-जैसा मिले, उसी से शरीर चलाकर सन्तोष पाना। रस परित्याग का अर्थ है-रसलोलुपता पर विजय पाना। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-तीनों योगों और पांचों इन्द्रियों को आत्म-केन्द्र की ओर मोड़ना। बाह्य तप के ये प्रकार साधक को भोग से योग, विभाव से स्वभाव, शारीरिकता से आत्मिकता तथा निरर्थकता से सार्थकता की ओर ले जाते हैं। आभ्यन्तर तप का प्रथम रूप है-प्रायश्चित्त। पाप का छेदन करने वाली साधना प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त दण्ड नहीं है। दण्ड कोई दूसरा देता है। प्रायश्चित्त साधक स्वयं करता है। दण्ड व्यक्ति को ढीठ बना सकता है परन्तु प्रायश्चित्त सदैव परिष्कार ही करता है। इस से साधक को ऋजुता की प्राप्ति होती है। विनय का अर्थ है-गुण-सम्पन्न व्यक्ति के समान झुक जाना। विनम्र हो जाना। झुक कर ज्ञान के फल उठाने की योग्यता अपने में विकसित करना। सुपात्र बनना। वैयावृत्य का अर्थ है-सेवा। इसके लिये अहंकार, प्रमाद, इच्छा, ग्लानि और संकोच को छोड़ना होता है। संवेदनशीलता, सजगता, सरलता, धैर्य, करुणा, माधुर्य, स्नेह आदि अनेक गुण अपनाने होते हैं। स्वाध्याय का अर्थ है-आत्मा का हित करने वाला अध्ययन करना। इस अध्ययन की वैज्ञानिक प्रक्रिया यहां बतलाई गई है। ध्यान का अर्थ है-समस्त विचारों का संकेन्द्रण। व्युत्सर्ग का अर्थ है-विशिष्ट त्याग। बाहरी दनिया के आहार-उपकरण तो क्या. शरीर का भी त्याग। भीतरी दनिया से राग. द्वेष, कषायों का त्याग। ममता का त्याग और समता का स्वीकार। ध्यान के बिना व्युत्सर्ग और व्युत्सर्ग के बिना ध्यान सम्भव नहीं। स्वाध्याय के बिना दोनों अपूर्ण हैं। विनय न हो तो स्वाध्याय संभव नहीं। प्रायश्चित्त सम्भव नहीं। वैयावृत्य के लिये विनय भी चाहिये, काय-क्लेश भी, रस-परित्याग भी, भिक्षाचरी भी और ऊनोदरी भी। रस-परित्याग न हो तो ऊनोदरी असंभव है। अनशन असंभव है। भिक्षाचरी असंभव है। स्वाध्याय को समर्पित होना असंभव है। सभी तप परस्पर मूलतः संबद्ध हैं। सभी तप-साधनाओं का विस्तृत ज्ञान देने के साथ-साथ सम्यक् तप के लिये प्रबल प्रेरणा देने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। 00 अध्ययन-३० ६१३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy