SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 640
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्ययन-सार: भगवान महावीर ने कहा-संवेग से जीव धर्मश्रद्धा, निर्वेद से आरम्भ-परित्याग, धर्मश्रद्धा से अनासक्ति व अनगार-धर्म, गुरु व साधर्मिक-सेवा से विनय, आलोचना से ऋजु-भाव, निन्दना से मोहनीय कर्म-मुक्ति, गर्हणा से प्रशस्त-योग-सम्पन्नता, सामायिक से पाप-विरति, चतुर्विंशति-स्तव से दर्शन-विशुद्धि, वन्दना से उच्च गोत्र कर्म-बन्ध, प्रतिक्रमण से आस्रव-निरोध व समिति-गुप्ति-उपासना, कायोत्सर्ग से प्रशस्त-ध्यान-लीनता, प्रत्याख्यान से आस्रव द्वारों का निरोध, स्तव-स्तुति-मंगल से रत्नत्रय, काल-प्रतिलेखना से ज्ञानावरणीय कर्म-क्षय, प्रायश्चित से रत्नत्रय व मोक्ष की आराधना, क्षमापना से प्रह्लाद व मैत्री-भाव, स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म-क्षय, वाचना से तीर्थ-धर्म का अवलम्बन, प्रतिप्रच्छना से कांक्षा-मोहनीयकर्म-उच्छेद, परावर्तना से वयंजन-लब्धि, अनुप्रेक्षा से आयुष्य के अतिरिक्त सातों कर्म-बंधनों की शिथिलता, धर्मकथा से प्रभावना व शुभ कर्मबन्ध, श्रुताराधना से अज्ञान का नाश, मन की एकाग्रता से चित्तवृत्ति-निरोध, संयम से अनास्रवत्व, तप से व्यवदान, व्यवदान से अक्रियता, सुख-शात से चारित्र-मोहनीय-कर्म-क्षय, अप्रतिबद्धता से निस्संगता, विविक्त शयनासन से चारित्र-रक्षा, विनिवर्तना से पाप-मुक्ति हेतु सचेष्टा, संभोग-प्रत्याख्यान से स्वावलम्बन व सन्तोष, उपधिप्रत्याख्यान से स्वाध्याय-ध्यान में निर्विघ्नता. आहार-प्रत्याख्यान से जीने की लालसा से मुक्ति, कषाय-प्रत्याख्यान से वीतराग-भाव, योग-प्रत्याख्यान से अयोगत्व, शरीर-प्रत्याख्यान से सिद्धों के अतिशय गुण, सहाय-प्रत्याख्यान से एकीभाव, भक्त-प्रत्याख्यान से अनेक भवों पर रोक, सद्भाव-प्रत्याख्यान से अनिवृत्ति, प्रतिरूपता से लघुता, वैयावृत्य से तीर्थंकर-नाम-गोत्र उपार्जन, सर्वगुणसंपन्नता से मोक्ष, वीतरागता से स्नेह-तृष्णा-मुक्ति, क्षान्ति से परीषह-विजय, मुक्ति से अकिंचनता, ऋजुता से अविसंवाद, मृदुता से निरभिमानता, भाव-सत्य से भाव-विशुद्धि, करण-सत्य से कार्यशक्ति व तथाकारिता, योग-सत्य से योग-शुद्धता, मनोगुप्ति से एकाग्रता, वचन-गुप्ति से निर्विकार भाव, काय-गुप्ति से संवर, मन की समाधारणता से ज्ञान-पर्यव व सम्यक्त्व-विशुद्धि, वचन-समाधारणता से सम्यक्त्व-पर्यव-विशुद्धि, काय-की समाधारणता से चारित्र-पर्यव-विशुद्धि, ज्ञान-सम्पन्नता से संसार-भ्रमण-रक्षा, दर्शन-सम्पन्नता से मिथ्यात्व का छेदन, चारित्र-संपन्नता से शैलेशी भाव, पंचेन्द्रिय-निग्रह से इन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेष से मुक्ति, क्रोध-विजय से क्षान्ति, मान-विजय से मृदुता, माया-विजय से ऋजुता, लोभ विजय से संतोष और प्रेय, द्वेष व मिथ्यादर्शन पर विजय से केवल ज्ञान-दर्शन प्राप्त करता है। अकर्मता, योग-निरोध तथा सर्व-कर्म-क्षय करते हुए वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। 00 ६१० उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy