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७. (शीत-परीतह से पीड़ित होने पर भी) “मेरे पास (शीत के)
निवारण का साधन (मकान आदि) नहीं, तथा 'छवित्राण' (शरीर की रक्षा करने वाला कम्बल आदि) भी नहीं है, इसलिए मैं तो 'अग्नि' का सेवन कर (ही) लूं"-इस तरह मुनि न सोचे।
८. उष्ण (भूमि आदि) के परिताप से, (प्यास या पसीने आदि के)
दाह से, अथवा ग्रीष्मकालीन (सूर्यादि के) परिताप से पीड़ित होने पर (भी मुनि) “साता' (शीतकालीन सुख की प्राप्ति) के लिए विलाप न करे (आतुर या व्याकुल न हो)।
६. गर्मी से संतप्त होने पर (भी) मेधावी (मुनि) स्नान करने की
इच्छा न करे। शरीर को सिंचित्-गीला न करे, और पंखे से स्वयं पर (थोड़ी भी) हवा न करे ।
१०. डांस-मच्छरों से पीड़ित होने पर (भी) महामुनि समभाव से
(अविचलित) रहे । युद्ध के मुहाने पर (खड़े हुए) हाथी की तरह 'शूर' (बनकर आन्तरिक) शत्रुओं का हनन करे (उन्हें पराजित करे)।
११. मांस व रक्त का भक्षण कर रहे (उन) प्राणियों (डांस-मच्छर
आदि) को मारे नहीं, (बल्कि) उपेक्षा-भाव रखे। (उनसे) संत्रस्त नहीं हो (या हाथ-पैर भी न हिलाये-डुलाये)। उनका निवारण (भी) न करे, और मन में उनके प्रति द्वेष भाव भी न रखे।
१२. 'वस्त्रों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने से मैं (तो) 'अचेलक' (वस्त्रहीन)
हो जाऊंगा', या ('नये वस्त्र धारण कर) 'सचेलक' होऊंगा' - ऐसा (भी) भिक्षु न सोचे/विचारे ।
अध्ययन २
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