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________________ (सू.५२) (प्रश्न-) भन्ते! 'करण-सत्य' (प्रतिलेखना आदि धार्मिक क्रियाओं की, प्रमाद-आलस्य-रहित होकर, शास्त्रोक्त विधि-अनुरूप आराधना करने से जीव क्या (गण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) करण-सत्य से (जीव) करण-शक्ति (धार्मिक क्रियाकलाप को सम्यक् प्रकार से सम्पन्न कर सकने की अपूर्व सामर्थ्य) प्राप्त करता है। 'करण-सत्य' में प्रवर्तमान जीव 'यथावादी तथाकारी' (कथनी व करनी में, उपदेश व आचरण में एकरूपता वाला) हुआ करता है। (सू.५३) (प्रश्न-) भन्ते! 'योग सत्य' (मन-वचन-काय की सत्यता, विचार, उपदेश व आचरण - इन तीनों की एकरूपता के साथ आगमानुसार निर्दोष प्रवृत्ति) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) 'योगसत्य' से (जीव) योग (मन-वचन व काय की प्रवृत्ति) को विशुद्ध निर्मल करता है। (सू.५४) (प्रश्न-) भन्ते! 'मनोगुप्ति' (अशुभ मनोयोग-निरोध, अशुभ अध्यवसायों में मनोवृत्ति के निरोध - ‘मनः प्रतिसंलीनता' हो जाने पर, सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, मिश्र मनोयोग व व्यवहार मनोयोग- इन चार मनोयोगों के निरोध तथा उसके फलस्वरूप समत्व-प्रतिष्ठित मन की आत्मरति वाली विकल्प रहित स्थिति) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) 'मनोगुप्ति' से जीव एकाग्रता (धर्म में स्थिर-चित्तवृत्ति) को प्राप्त करता है। एकाग्र-चित्त हुआ जीव (शुभ-अशुभ विकल्पों से) मन की रक्षा करता हुआ, 'संयम' (धर्म) का (सम्यक्) आराधक होता है। अध्ययन-२६ ५६१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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