________________
२. देह में क्षुधा उत्पन्न होने पर (भी) तपस्वी साधु (मानसिक व
संयम-सम्बन्धी) बल से युक्त होता हुआ (सचित्त वनस्पतियों का) न (स्वयं) छेदन करे, न दूसरों से छेदन कराये, तथा न (स्वयं) पकाए और न दूसरों से पकवाए।
३. (भले ही भूख से पीड़ित शरीर) 'काकजंघा" तथा (वनस्पति) के
समान कृशता को प्राप्त हो जाए, और (मात्र) धमनियों का ढांचा रह जाए, (तो भी) आहार-पान की मात्रा (मर्यादा) का ज्ञाता (भिक्षु) मन में दीनता न लाता हुआ, विचरण करे।
४. और फिर, प्यास से पीड़ित होने पर (भी) (असंयम के प्रति)
जुगुप्सा-भाव (घृणा या अरुचि) रखने वाला, तथा लज्जा से संयम से युक्त (भिक्षु) शीतोदक (सचित्त जल) का सेवन न करे,
और 'विकृत' (अग्नि आदि से विकार प्रासुकता को प्राप्त जल)
की एषणा हेतु विचरण करे । ५. (लोगों के आवागमन से रहित मार्गों में अधिक प्यास से आतुर
(व्याकुल) होने पर (भी) तथा मुंह सूख जाने की स्थिति में (भी भिक्षु) मन में दीनता न लाता हुआ उस (पिपासा) परीषह को सहन करे।
६. विचरणशील मुनि को - जो (अग्नि आदि सावद्य कार्यों से) विरत
है, और रुक्ष (शरीर वाला या अनासक्त) है - कभी शीत-परीषह स्पृष्ट/पीड़ित करे तो (भी वह) मुनि जिन-उपदेश को सुन कर (ध्यान में रखकर) 'मर्यादा' का (या स्वाध्यायादि काल का) उल्लंघन न करे।
१. 'काक पर्वांग' अर्थात् 'काकजंघा', कौए की शुष्क/कृश टांग अथवा 'काकजंघा' नामक वनस्पति विशेष जिसका मध्य भाग बहुत पतला होता है और पर्व भाग कुछ मोटा होता है। तप से भिक्षु के उरु व बाहु आदि पतले हो जाते हैं, तथा घुटने, कोहनी आदि मोटे। इस दृष्टि से उक्त वनस्पति के साथ भिक्षु का सादृश्य यहाँ प्रतिपादित किया गया है ।
अध्ययन २
३१