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________________ (सू.६) (प्रश्न-) भन्ते! आलोचना (गुरुजनों के सम्मुख अपने दोषों के प्रकाशन, स्वयं अपने दोषों का निरीक्षण व समीक्षा) के द्वारा (जीव) क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध (प्राप्त) करता है? (उत्तर-) आलोचना द्वारा मोक्ष-मार्ग में विघ्न (पैदा करने वाले) तथा अनन्त संसार का बन्ध कराने वाले माया (शठता व वंचकता), निदान (तप व धर्म के फल रूप में सांसारिक सुखों की कामना) व मिथ्यादर्शन (असद् दृष्टि, देव, गुरु व तत्वों के यथार्थ स्वरूप से अपरिचय तथा उनके विपरीत स्वरूप को ग्रहण करना आदि) को उखाड़ फेंकता है। ऋजु-भाव को प्राप्त होता है। ऋजु भाव को प्राप्त हुआ (वह) जीव माया-रहित होकर स्त्रीवेद व नपुंसक वेद का (नया) बन्ध नहीं करता और पूर्वबद्ध (स्त्रीवेद व नपुंसक वेद) की निर्जरा (भी) करता है। (सू.७) (प्रश्न-) भन्ते! 'निन्दना' (स्वकीय दोषों पर स्वयं का तिरस्कार, पश्चाताप, आत्म-स्वकीय दोषों का समीक्षण कर उनके प्रति तिरस्कार-भाव एवं उन पर पश्चाताप करने) से जीव क्या (गुण व विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है? (उत्तर-) निन्दना (निन्दा) से (जीव) पश्चाताप (का आत्म-परिणाम) उत्पन्न करता है। पश्चाताप (के भाव) के द्वारा (प्राप्त) विरक्ति-युक्त होता हुआ 'करणगुणश्रेणी' (आध्यात्मिक उन्नति के आठवें सोपान-गुणस्थान में, क्षपक श्रेणी के प्रारम्भ में होने वाली आत्मिक अपूर्व विशुद्ध भाव-धारा) को प्राप्त करता है। 'करणगुणश्रेणी' को प्राप्त अनगार (मुनि) मोहनीय कर्म को विनष्ट कर देता है। अध्ययन-२६ ५६१
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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