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(सू.४) (प्रश्न-) भन्ते! धर्म-श्रद्धा से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) प्राप्त करता है?
(उत्तर) धर्म-श्रद्धा से साता-सुखों (सातावेदनीय कर्म से उत्पन्न इन्द्रिय विषय-सुखों) से (जीव) विरक्त हो जाता है, और गृहस्थ धर्म (गृहस्थ-जीवन की सावद्य प्रवृत्ति) को छोड़ देता है । (वह) जीव अनगार होकर छेदन-भेदन रूप शारीरिक दुःखों का तथा (अनिष्ट) संयोग आदि मानसिक दुःखों का विच्छेद करता है, तथा (फलस्वरूप) अव्याबाध (बाधारहित) सुख को उपलब्ध करता है।
(सू. ५) (प्रश्न-)
भन्ते! गुरु और साधर्मी जनों की शुश्रूषा (सेवा-भावना व सद्द्बोध-प्राप्ति की इच्छा) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) उपलब्ध करता है?
(उत्तर-) गुरु और साधर्मिकों की शुश्रूषा से (जीव) विनय-प्रतिपत्ति (विनय-स्वभाव का उद्भव तथा अंगीकरण) को उपलब्ध करता है । विनय-प्राप्त जीव (गुरुओं के अविनय, तिरस्कार, परिवाद, आदि) आशातना का अधिकांशतः न करने के स्वभाव वाला होता हुआ, नारकी व तिर्यंच गति, (म्लेच्छ आदि) मनुष्य व किल्विषक परमाधर्मी आदि देवों से सम्बन्धित दुर्गतियों का निरोध कर लेता है। (अपितु गुरु-जनों आदि की) प्रशंसा, गुण- प्रकाशन, भक्ति (व्यावहारिक आदर) एवं ( आन्तरिक प्रीति रूप) बहुमान द्वारा मनुष्यों व देवों से सम्बन्धित सुगति का बन्ध करता है । सिद्धि व सुगति (के मार्ग) को विशुद्ध (प्रशस्त) करता है। विनय-मूलक सभी प्रशस्त कार्यों का साधक होता है, और अन्य भी अनेक जीवों को ‘विनयी' बना देने वाला (विनय-धर्म में प्रवर्तक) हो जाता है ।
अध्ययन- २६
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