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(सू.२) (प्रश्न-) भन्ते! 'संवेग' (मोक्ष प्राप्त करने की तीव्रतम/अनन्य
अभिलाषा) से जीव क्या (गुण या विशिष्ट फल) प्राप्त करता
है? (उत्तर-) 'संवेग' से (जीव) अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) धर्म-श्रद्धा को (उत्पन्न)
प्राप्त करता है। अनुत्तर धर्म-श्रद्धा से (वह) संवेग को शीघ्र (और अपेक्षाकृत अधिक भी) अधिगत करता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया व लोभ का क्षय करता है तथा नये कर्मों का बन्ध नहीं करता। उस (कषाय-क्षय) के फल स्वरूप मिथ्यात्व-विशुद्धि करके (सम्यक्) दर्शन का आराधक होता है। दर्शन-विशुद्धि से विशुद्ध होकर कोई एक (विरला) उसी भव (जन्म) से सिद्ध (मुक्त) हो जाता है। सामान्यतः दर्शन-विशुद्धि से विशुद्ध होने वाला (यदि कुछ कर्म शेष भी
रह जाएं, तो भी) तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं करता। (सू.३) (प्रश्न-) भन्ते! निर्वेद से सांसारिक-शारीरिक भोगों से
वैराग्य, सांसारिक दुःखों से नित्य भीरुता एवं काम-भोगों को छोड़ने की तीव्र भावना आदि से जीव क्या (गुण या विशिष्ट
फल) प्राप्त करता है ? (उत्तर-) 'निर्वेद' से देवों, मनुष्यों व तिर्यंचों के (जीवन से सम्बन्धित)
काम-भोगों में शीघ्र (व विशिष्ट) 'निर्वेद' (वैराग्य) को अधिगत करता है, (और क्रमशः) सभी विषयों से विरक्त हो जाता है। सभी विषयों से विरक्त होकर 'आरम्भ' का (अर्थात् हिंसा एवं परिग्रह आदि का भी) त्याग करता है। 'आरम्भ' (व परिग्रह) का त्याग करता हुआ, (वह) संसार के मार्ग का विच्छेद करता है, और सिद्धि (मुक्ति) के मार्ग को प्राप्त होता है।
अध्ययन-२६
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