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________________ [木 Tor HARAA आत्मीय लगने लगता है। शताब्दियों की दूरियां समाप्त कर देता है। इतना महत्वपूर्ण रूप है प्रस्तुत अध्ययन का। सभी प्रश्नों में अंतर्निहित एक प्रश्न को यदि देखा जाये तो वह है, " साधना के इस रूप या इस चरण से जीव को क्या प्राप्त होता है?" यह प्रश्न सभी प्रश्नों में उपस्थित होने के कारण इस अध्ययन का मूल प्रश्न है। इस प्रश्न का विश्लेषण बतलाता है कि इसमें अन्य अनेक प्रश्नों की अर्थ-छायाएं भी सम्मिलित हैं। इस साधना को जीव क्यों करे? इस साधना का औचित्य क्या है? इस साधना की ओर साधक को प्रेरित करने वाली शक्ति कौन-सी है? यदि किसी कारण से इस साधना में साधक की स्थिरता डगमगाने लगे तो पुनः स्थिर होने के लिए ऊर्जा वह कहां से पाये? इस साधना का सम्यक्त्व-पराक्रम नामक विराट् साधना में क्या स्थान है? ये सभी प्रश्न उक्त मूल प्रश्न में समाहित हैं। इसीलिए जब मूल प्रश्न का उत्तर मिलता है तो इन सभी प्रश्नों का उत्तर भी स्वतः मिल जाता है। इस अर्थ में ये प्रश्नोत्तर अत्यन्त सारगर्भित हैं। एक प्रश्नोत्तर में साधना का एक रूप या चरण सुस्पष्ट होता है। दूसरे से लेकर बहत्तरवें सूत्र तक यह प्रश्नोत्तर-शृंखला चलती है। साधना के इकहत्तर रूपों या चरणों को यहां उजागर किया गया है। स्पष्ट है कि इस अध्ययन की प्रतिपाद्य विषय-वस्तु सम्यक्त्व के पराक्रम के समान ही विस्तृत है। इतनी विस्तृत कि इसमें सम्पूर्ण उत्तराध्ययन की अंतर्वस्तु का सार समाहित हो गया है। इसके एक-एक उत्तर में अर्थ की गहनता है। इतनी गहनता कि उसमें उतर कर अनेक अलौकिक उपलब्धि-रत्न प्राप्त किए जा सकते हैं। अन्तिम दो सूत्रों में सम्पूर्ण साधना के परिणाम की सांगोपांग अभिव्यक्ति हुई है। योग-निरोध व शैलेशी अवस्था को यहां देखा व जाना जा सकता है। साधक-जीवन के मर्म की विस्तार एवं गहनता से विवेचना करने के साथ-साथ गद्य की शक्ति का जीवन्त प्रतिरूप उद्घाटित करने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। अध्ययन- २६ . ५५१ 9
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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