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अध्ययन परिचय
'सम्यक्त्व पराक्रम' नामक इस अध्ययन का केन्द्रीय विषय है-सम्यक्त्व से सम्पन्न साधक की अन्तर्बाह्य क्रियाएं व उनके लाभ। इन सभी क्रियाओं में साहस और दृढ़ता की आवश्यकता होती है। इसीलिये इस का नाम 'सम्यक्त्वपराक्रम' रखा गया। यह तिहत्तर प्रश्नोत्तरों या चौहत्तर सूत्रों से निर्मित है। जिन-भाषित सत्य पर अटूट आस्था रखते हुए अपने जीवन को उसका मूर्त रूप बना देना सम्यक्त्व-पराक्रम है।
मोक्ष की इच्छा से प्रारम्भ होते हुए यह पराक्रम सर्वकर्म-मुक्त अवस्था तक पहुंचता या सम्पन्न होता है। इन दोनों बिन्दुओं के बीच है-साधना। यह साधना बहुरूपी है। अंतर्जगत् में भी साधक साधना करता है और बहिर्जगत् में भी। दोनों में कोई अन्तर या विरोध नहीं होता। साधना-लीन साधक जो सोचता है, वही कहता है और वही करता है। उसका पूरा जीवन जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित धर्म-मार्ग पर अथक यात्रा का पर्याय होता है।
प्रस्तुत अध्ययन इस यात्रा के प्रत्येक चरण को उजागर करता है। साधक की छोटी से छोटी क्रिया भी सार-गर्भित और सार्थक होती है। विवेक व धर्म-सम्मत होती है। औचित्य-बोध से युक्त होती है। परिणाम-चेतना से सम्पन्न होती है। वह शुभ कारणों का परिणाम भी होती है और शुभ परिणामों का कारण भी। सम्यक्त्व का पराक्रम उसमें आकार लेता है। संयम उस में मर्त होता है। धर्म-संघ-रथ उस से आगे बढ़ता है। साधक की ऐसी लगभग सभी छोटी-बड़ी क्रियाएं अपने औचित्य के साथ यहां प्रस्तुत हुई हैं।
जिज्ञासा मनुष्य की आदिम वृत्ति ही नहीं, उसकी सर्वाधिक मूल्यवान् सम्पत्ति भी है। इस सम्पत्ति का जब-जब उसने सम्यक् उपयोग किया, तब-तब वह ज्ञान से सम्पन्न हुआ। विकास के मार्ग पर आगे बढ़ा। जिज्ञासा का सम्यक् उपयोग इस अध्ययन का प्रश्न पक्ष है और ज्ञान का सही दिशा में प्रसार इसका उत्तर पक्षा दोनों का समन्वय यहां इस प्रकार हुआ कि लगभग सभी धर्म-जिज्ञासाओं के समाधान से यह अध्ययन सम्पन्न हो गया।
प्रश्नोत्तर शैली-मात्र नहीं होते। वे साधक के विकास-द्वार भी होते हैं। जिज्ञासा और ज्ञान के बीच सेतु भी होते हैं। इतिहास के सन्देश-वाहक भी होते हैं। वचन-विनिमय के सर्वाधिक प्रचलित एवं सर्वाधिक सहज रूप हैं-प्रश्नोत्तर। इस रूप में अभिव्यक्त होकर ज्ञान
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उत्तराध्ययन सूत्र