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________________ २४. समस्त प्रमाणों से तथा सभी नय-विधियों से जिसने द्रव्यों के सभी भावों (स्वरूप आदि) को जान लिया है, उसे 'विस्तार-रुचि' । जानना चाहिए। LADO २५. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य (भाषण), समिति व गुप्ति इन क्रियाओं में जो भाव-सहित रुचि रखता है, वह 'क्रियारुचि' नामक (सम्यक्त्वी ) है। २६. जिसने कुदृष्टि (मिथ्यात्व या अन्य एकान्तवादी मतों के प्रति श्रद्धान) को ग्रहण नहीं किया है, (जिन-मत के अतिरिक्त) शेष (कपिल आदि के मतों) का ज्ञाता भी नहीं है और (जिनोक्त) उपदेश में अविशारद (अल्पज्ञानी) है, (किन्तु जिन-मत पर अचल श्रद्धा रखता है) उसे 'संक्षेपरुचि' जानना चाहिए। २७. जो जिनेन्द्र-निरूपित (पांच) अस्तिकायों के धर्म (स्वरूप) पर तथा श्रुत-धर्म व चारित्र धर्म पर श्रद्धा रखता है, उसे धर्मरुचि जानना चाहिए। २८. परमार्थ (जीव आदि पदार्थ समूह) से परिचित होना, तथा जिन्होंने परमार्थ का साक्षात्कार व ज्ञान प्राप्त किया है, उनकी सेवा करना एवं सम्यक्त्व-भ्रष्ट व कुदृष्टिसंपन्न व्यक्तियों से दूर रहना- यह 'सम्यक्त्व श्रद्धान' (सम्यक्त्व की प्रतीति कराने वाला चिन्ह) है। २६. सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं होता, किन्तु दर्शन (सम्यक्त्व) की 'भजना' (यानी विकल्प है, अर्थात् चारित्र के बिना सम्यक्त्व हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता) है। सम्यक्त्व व चारित्र (कभी) एक साथ भी होते हैं, किन्तु चारित्र (हो तो उस)के पूर्व में सम्यक्त्व (होता ही) है। अध्ययन-२८
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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