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१५. अब (इन दुष्ट बैलों के समान अविनीत शिष्यों) से खिन्न होकर,
सारथि (की भांति, आचार्य गार्ग्य) सोचने लगते हैं- “(इन) दुष्ट शिष्यों से मुझे (आखिर लाभ) क्या है? (अपितु इन से तो) मेरी
आत्मा दुखी/व्याकुल ही रहती है।” १६. “जिस तरह के गलिगर्दभ (आलसी-निकम्मे गधे) होते हैं, वैसे
ही ये मेरे शिष्य हैं।” (उक्त चिन्तन के फलस्वरूप) उन (गर्गाचार्य) ने गलिगर्दभ (जैसे शिष्यों) को छोड़ कर, दृढ़तापूर्वक
तपःसाधना को अंगीकार किया। १७. (बाहर से) मृदु (सुकोमल), अन्दर से मार्दव-सम्पन्न (अहंकार
रहित), गम्भीर सुसमाधियुक्त वे महात्मा (गर्गाचार्य) शील (चारित्र)- सम्पन्न आत्मा से युक्त होकर, पृथ्वी पर (स्वपर-कल्याण हेतु) विचरण करने लगे। -ऐसा मैं कहता हूँ।
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अध्ययन-२७
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