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________________ ११. वह बीच में (ही) बोल उठता है और दूसरे में (या गुरु में) ही दोष निकालने लगता है, तथा आचार्यों (आदि) के वचनों के प्रतिकूल ही निरन्तर आचरण करता है (या उलटे आचार्य को ही शिक्षा देने तथा उन पर आक्षेप करने लगता है) । ” THAN १२. (जब किसी शिष्य को किसी श्राविका से भिक्षा, या ग्लान आदि के लिए औषधि आदि कोई वस्तु लाने के लिए कहा जाता है तो प्रत्युत्तर में वह कहता है-) “वह मुझे पहचानती ही नहीं है, और न वह मुझे (वस्तु) देगी।” (अथवा कहता है-) “मैं समझता हूं (अभी तो) वह (घर से कहीं अन्यत्र) चली गई होगी।” (अथवा वह कहता है-) “क्या मैं ही कोई अकेला शिष्य हूँ, और भी तो हैं, अतः कोई अन्य साधु चला जाए। " १३. “ (किसी कार्य के लिए) उन्हें भेज भी दिया जाए, तो वे अनादर या कुटिलता करने लगते हैं (या तो वे काम ही ठीक से पूरा कर नहीं लौटते, या जाते ही नहीं, और कहते हैं कि मुझे कब कहा था, या वस्तु लाकर छिपा देते हैं, या ऐसा कह देते हैं कि वह दाता तो मिला ही नहीं- इत्यादि कुटिलता पूर्ण आचरण/भाषण करते हैं ।) वे (आज्ञा-पालन में रुचि न रखते हुए) इधर-उधर घूमते-फिरते रहते हैं, तथा गुरु आज्ञा को राजा की बेगार की भांति मानते हुए और मुख पर भृकुटि (त्योरी) चढ़ा लेते हैं ।” १४. “ (इन्हें मैंने सूत्र की) वाचना दी, अपने पास रखा (या दीक्षित किया), आहार-पानी से (इनका) पोषण भी किया। किन्तु पंख आने पर हंस ( शावक जिस प्रकार दशों दिशाओं में स्वच्छन्द हो उड़ जाते हैं, उन्हीं हंसों) की तरह ये विविध दिशाओं में (गुरुओं का साथ छोड़ कर, स्वेच्छाचारी होते हुए) प्रस्थान कर जाते हैं । " अध्ययन- २७ उ ५२७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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