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________________ 卐EO सत्ताईसवां अध्ययन : खलुंकीय १. स्थविर (धर्म-स्थिर), गणधर (गण/गच्छ के अधिपति), (शास्त्रों में) विशारद तथा (गर्ग कुल में उत्पन्न होने के कारण) गार्ग्य (नाम वाले एक) मुनि (थे, जो गुणों से) आकीर्ण (युक्त) गणि भाव (आचार्य पद) में स्थित होते हुए 'समाधि' (रत्नत्रयात्मक अपनी या पराई भाव-समाधि के टूटने पर, पुनः उस) का प्रतिसंधान करने (या जोड़ने की क्षमता) वाले थे। जिस प्रकार, वाहन को ठीक तरह से वहन करने वाले (विनीत वृषभ आदि) को (ठीक तरह से जोत कर) हांकने वाले सारथी का अरण्य (जैसा बीहड़ मार्ग) भी पार हो जाता है, (उसी प्रकार) 'योग' (संयमपूर्ण व्यापार) में (विनीत शिष्यों को ठीक तरह संयोजित कर) चलाते (अर्थात् प्रवृत्त कराते) हुए (आचार्य तथा उन शिष्यों) का संसार (रूपी मार्ग) पार हो जाता है। ३. किन्तु जो ‘खलुंक' (दुष्ट, अविनीत बैल) को (वाहन में) जोतता है, वह (उन्हें प्रताड़ित करता हुआ) क्लेश ही पाता है (अर्थात् मार-मार कर थक जाता है), 'असमाधि' (चित्त की अशान्ति व अस्वस्थता) का भी अनुभव करता है, और (अन्त में) उसका चाबुक भी टूट जाता है। ४. (क्रोधित होकर, सारथी किसी) एक (बैल) के पुच्छ (पूंछ) को मरोड़ देता है। (चिकौंटी) काटता है, दूसरे (के पृष्ठ भाग) को (चाबुक की लकड़ी से) बींधता है। (और उन बैलों में से कोई) एक जुए की समिला (कील) को (ही) तोड़ देता है तो (दूसरा) एक उन्मार्ग पर चल पड़ता है। अध्ययन-२७ ५२३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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