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W24152 प्राप्त करता है। परीषहों पर विजय प्राप्त करते या उन्हें सहते हुए सुयोग्य साधक कष्ट का नहीं, अपितु प्रसन्नता व उत्साह का अनुभव करता है। उन्हें अपनी संयम-यात्रा के लिये बाधक नहीं, साधक मानता है। संयम की कसौटी पर खरा उतरने के अवसर मानता है। कर्म-निर्जरा के माध्यम मानता है। परीक्षा के रूप मानता है। चुनौतियों की तरह उन्हें स्वीकार करता है। अपनी दृढ़ता से यह प्रमाणित करता है कि कष्टों में उसे कष्ट देने की शक्ति नहीं है। कष्टों की वेदना से उसकी सहिष्णुता कहीं अधिक सक्षम है। परीषहों से उसका संयम कहीं अधिक सशक्त है।
ऐसी साधना करने वाले साधक का संयम सभी आपदाओं से सुरक्षित रहने की क्षमता अर्जित कर लेता है। अभय उसकी आदत हो जाता है। पराक्रम उसका स्वभाव बन जाता है। यह आश्वस्ति उसकी विशेषता बन जाती है कि बाधायें या कठिनाइयां कैसी भी हों, उसके संयम को कभी कम्पित नहीं कर सकतीं।
तप-साधना से साम्य रखते हुए भी परीषह-विजय तप-साधना की पर्याय नहीं है। तप-साधना का अर्थ है- साधक द्वारा कर्मों की उदीरणा कर उनकी निर्जरा करना। इस प्रक्रिया में होने वाला कष्ट साधक द्वारा आमंत्रित किया जाता है। परीषह कर्मोदय के परिणामस्वरूप स्वयं उपस्थित होते हैं। साधक उन्हें आमंत्रित नहीं करता। उन की इच्छा भी नहीं करता। दोनों में साम्य यह है कि दोनों के लिये साधक में साहस, दृढ़ता, धैर्य, सहिष्णुता, अनासक्ति
और द्रष्टा हो सकने की क्षमता जैसी विशेषताएं चाहियें। दोनों की सार्थकता कर्म-निर्जरा एवम् संयम-सम्पदा की अभिवृद्धि में है।
परीषह-जेता साधक के लिये शरीर संयम का साधन-मात्र होता है। सुख या यश का स्रोत नहीं होता। परीषह उसकी देह को ही प्रभावित करते हैं, उसे नहीं। शरीर पर परीषहों के प्रभाव को वह आत्मा हो कर निर्लिप्त भाव से देखता रहता है। यह दृष्टि उसे परीषह-जेता बनाती है। सक्षम संयमी बनाती
है।
विभिन्न परीषहों को जीतने के विभिन्न उपाय बतलाने के साथ-साथ मोक्ष-मार्ग का वेगवान् पथिक होने की कला बतलाने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है।
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अध्ययन-२