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अध्ययन परिचय
तीन सूत्रों और छियालीस गाथाओं से निर्मित हुआ है-प्रस्तुत अध्ययन। इसका केन्द्रीय विषय है-साधक द्वारा परीषहों पर विजय प्राप्त करना। परीषहों का विवेचन करने वाला होने से प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'परीषह-प्रविभक्ति' रखा गया। परीषह का अर्थ है-साधक-जीवन में आने वाली ऐसी विशिष्ट अंतर्बाह्य स्थितियां, जो साधक को संयम-मार्ग से भ्रष्ट भी कर सकती हैं और उन्हें यदि बिना किसी आर्त्त-ध्यान के सम-भावपूर्वक सहा जाता है तो वे कर्म निर्जरा का कारण भी बन सकती हैं। समता से सहने योग्य होने के कारण इन्हें 'परीषह' कहा जाता है। इन्हें दृढ़ता से सह कर साधक इन पर विजय प्राप्त करता है। संयम-मार्ग पर और अधिक स्थिर होता है। कर्म-निर्जरा करता है। प्रतिकूल स्थितियों का भी आत्म-साधना में अनुकूल उपयोग करता है।
ये स्थितियां दो प्रकार की बतलाई गई हैं-अनुकूल और प्रतिकूल। आचारांग सूत्र में इन्हें शीत और उष्ण परीषह कहा गया है। बाईस परीषहों में से स्त्री और सत्कार-सम्मान, ये दो शीत तथा शेष बीस (अज्ञान, अरति, क्षुधा, पिपासा, दंश-मशक आदि) उष्ण परीषह हैं। शीत परीषह आकर्षण तथा उष्ण परीषह विकर्षण के माध्यम से संयम को खण्डित करने के प्रयास करते हैं। संयम की दृष्टि से दोनों ही साधक के लिये अवांछनीय तथा अनामंत्रित स्थितियां हैं।
ये स्थितियां साधक के अपने किसी न किसी कर्म (ज्ञानावरणीय, अन्तराय, दर्शन-मोहनीय, चारित्र-मोहनीय व वेदनीय) के उदय से प्रादुर्भूत होती हैं। प्रज्ञा और अज्ञान ज्ञानावरणीय से, अलाभ अन्तराय से, अरति, अचेल, स्त्री निषद्या, याचना, आक्रोश, सत्कार-पुरस्कार चारित्र मोहकर्म से, दर्शन परीषह दर्शनमोह से तथा शेष 11 परीषह वेदनीय कर्म के उदय से उपस्थित होते हैं। ये साधक के लिये चुनौतियां बन कर प्रकट होते हैं, जिनके समक्ष अयोग्य साधक घुटने टेक देता है और संक्लेशमय परिणामों के कारण संयम-मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। सुयोग्य साधक इनका वीरतापूर्वक सामना करता है।
इन परीषहों पर विजय प्राप्त किये बिना साधक आध्यात्मिक यात्रा में प्रगति नहीं कर सकता। साधक धैर्य, अदीनता, सहिष्णुता, समभाव, अनासक्ति आदि सदगुणों का अवलम्बन लेकर, तथा आत्म-स्वरूप आदि से सम्बन्धित तात्त्विक चिन्तन के माध्यम से ज्ञाता-द्रष्टा बन कर इन परीषहों पर विजय
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उत्तराध्ययन सूत्र