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२०. उसी नक्षत्र के लिए जब आकाश (के तीन भागों को पार करते
हुए उस) का मात्र चतुर्थ भाग (पार करना) शेष रह जाए, तब वैरात्रिक काल (अर्थात् रात्रि की समाप्ति का काल, जो स्वाध्याय के लिए 'अकाल'-अयोग्य काल माना जाता है, उस) को देख-समझ कर (यथोचित काल-प्रवृत्ति) करे (अर्थात् रात्रि के चतर्थ प्रहर में प्रारम्भ के ३/४ भाग में. यानी छः घडी तक तो स्वाध्याय करे, किन्तु अंतिम २ घड़ी में विरात्रि काल जानकर,
स्वाध्याय छोड़ दे और करणीय कार्य प्रतिलेखन आदि करे)। २१. (दिन के) प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्भाग में (प्रथम प्रहर की प्रथम
दो घड़ियों में, इस प्रहर के प्रारम्भिक १/४ भाग में) भाण्डों (उपकरणों) की प्रतिलेखना करके, गुरु-वन्दना के अनन्तर (प्रथम प्रहर की अंतिम छः घड़ियों में, अंतिम ३/४ भाग में)
दुःख-मोचक स्वाध्याय करे । २२. (इसी प्रथम) पौरुषी के चतुर्थ भाग में (उक्त प्रारम्भिक २ घड़ियों
में) गुरु वन्दना के अनन्तर, काल का प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) किए बिना ही, भाजनों की प्रतिलेखना करे। (यहां यह संकेत किया गया है कि स्वाध्याय की समाप्ति के सूचक कायोत्सर्गादि या ईर्यापथिक प्रतिक्रमण तथा स्वाध्याय-सम्बन्धी चौदह अतिचारों का ध्यान करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भविष्य में पुनः
स्वाध्याय में प्रवृत्त होना है।) २३. मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन कर 'गोच्छग' (रजोहरण, प्रमार्जनी-पूंजणी)
की प्रतिलेखना करे । 'गोच्छग' की प्रतिलेखना करते हुए मुनि उंगलियों से उसको पकड़ के उसकी विशिष्ट रूप प्रतिलेखना
करे, पश्चात् वस्त्रों की प्रतिलेखना करे । २४. प्रथम तो ऊर्ध्व (उकडू) आसन से स्थिर बैठ कर शीघ्रता किए
बिना वस्त्र की प्रतिलेखना करे (चलता फिरता जीव-जन्तु दीखे तो उसे निरुपद्रव स्थान पर रख दे)। दूसरी बार में वस्त्र को धीरे से झटकार दे और तीसरी बार में वस्त्र की पुनः प्रमार्जना करे (यदि कोई जीव-जन्तु देखने में आ जाए तो उसे सुरक्षित
स्थान पर रख दे )। अध्ययन-२६
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