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________________ ६. द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से तथा भाव से - (इस प्रकार) 'यतना' चार प्रकार की कही गई है। उसका में वर्णन कर रहा हूं, सुनो! ७. द्रव्य से (यतना है) आंखों से (गन्तव्य मार्ग को) देखना। क्षेत्र से (यतना) है- युगमात्र (चार हाथ भूमि) को देखकर चले । काल से (यतना) है- (गमन करते समय तक देखकर चलना)। भाव से उपयोग (जीव रक्षा का विचार) युक्त गमन करना। (ईर्या समिति में यह अपेक्षित है-साधक) इन्द्रियों के (शब्द, रूप आदि) विषयों में उपयोग) का तथा (वाचना आदि) पांच प्रकार के स्वाध्याय का परित्याग कर, (मात्र) उस (गमन क्रिया) में ही तन्मय होकर तथा उसी (गमन) को आगे रखकर - प्रमुखता। देकर, उपयोग-पूर्वक ईर्या (समिति के अनुरूप) गमन करे । ६. (भाषा समिति में अपेक्षित है-) क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य (वाचालता) और साथ ही विकथाओं के प्रति (निवृत्ति-हेतु उपयोग पूर्वक) सजग रहे। १०. इन आठ (उक्त क्रोध आदि) स्थानों का त्याग करते हुए, प्रज्ञावान, संयमी (मुनि यथोचित) समय पर, निरवद्य (पापादि दोष-रहित) व परिमित (भाषा-समिति के अनुरूप) भाषा का उच्चारण करे। (एषणा समिति में अपेक्षित है अशन आदि) आहार, (वस्त्र-पात्र आदि) उपधि, और मकान, पाट आदि शय्या (-इन तीनों) के विषय में गो-एषणा (गोचरी के अन्वेषण में प्रवृत्ति), ग्रहणएषणा (आहारादि ग्रहण, तथा परिभोग-एषणा आहार का सेवन व उपभोग) -इन तीनों की परिशुद्धि की जाय (अर्थात् सभी दोषों को टाल कर आहार ग्रहण करे । इस तरह, उपधि व शय्या हेतु प्रवृत्ति तथा उनका ग्रहण व उपयोग/सेवन किया जाए।) अध्ययन-२४ ४६३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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