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४०. (विनयी शिष्य) न तो आचार्य को कुपित करे, और न स्वयं
अपने को कुपित करे। वह (आचार्यादि) प्रबुद्ध जनों का उपघातक (अनशनादि करने के लिए बाध्य करने वाला, या उनके ज्ञान-दर्शनादि की अवमानना करने वाला) न बने, और न ही उन्हें व्यथित करने वाला छिद्रान्वेषण ही करे। आचार्य (गुरु) को कुपित जान कर (विनीत शिष्य उन्हें) विश्वास या प्रीति पैदा करने वाले वचनों से प्रसन्न करे। हाथ जोड़ कर उन्हें शान्त करे, तथा यह कहे कि ऐसा (अपराध या दोष) दुबारा नहीं होगा।
४२. जो व्यवहार 'धर्म' से अर्जित किया जाता है, तथा जिसका प्रबुद्ध
व्यक्तियों द्वारा सदा आचरण किया जाता है, उस 'व्यवहार' का आचरण करने वाला (मुनि) निन्दा को प्राप्त नहीं होता।
४३. (शिष्य को चाहिए कि वह) आचार्य (गुरु) के मनोगत और वाणी
में निहित (अभिप्राय) को जान कर उसे वाणी से (कर्तव्य रूप में) स्वीकार करे और कार्य रूप से सम्पादित/निष्पादित करे ।
४४. विनयादि से युक्त शिष्य (गुरु से) प्रेरणा प्राप्त किए बिना (ही)
नित्य (कार्यरत) रहता है, और यदि उसे गुरु की सम्यक् प्रेरणा प्राप्त हो जाए, तो (उपदिष्ट) कार्यों को उपदेशानुरूप तथा (और भी अधिक) अच्छी तरह से तुरन्त सम्पन्न करता है।
४५. मेधावी (शिष्य उपर्युक्त विनय-धर्म को) जान कर 'विनीत' हो
जाता है, (तब) लोक में उसकी कीर्ति होती है। प्राणियों के लिए जिस प्रकार पृथ्वी (आधार) होती है, उसी प्रकार वह सत्यकार्यों (व उसके अनुष्ठाताओं के लिए 'शरण' (आधार) हो जाता है ।
अध्ययन १