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अध्ययन-सार :
एक बार भगवान् पार्श्वनाथ के सुयोग्य शिष्य केशीकुमार श्रमण श्रावस्ती के तिंदुक उद्यान में तथा भगवान् महावीर के सुयोग्य शिष्य गौतम स्वामी श्रावस्ती के कोष्ठक उद्यान में अपने-अपने शिष्यों सहित पधारे। उनके शिष्यों में एक-दूसरे की वेश व आचार सम्बन्धी भिन्नता देख कर जिज्ञासायें जागीं। उनके समाधान हेतु गौतम स्वामी तिन्दुक उद्यान पधारे। केशी श्रमण ने उनका यथा योग्य सत्कार किया। वहां दोनों में हुए संवाद से सभी की जिज्ञासायें शमित हुईं। _गौतम स्वामी ने फरमाया कि प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु-जड़, अंतिम के वक्र-जड़ व शेष तीर्थंकरों के साधु ऋजु-प्राज्ञ होते हैं। साधक-स्थिति के अनुसार भगवान् पार्श्वनाथ ने चतुर्याम व भगवान् महावीर ने पंचयाम धर्म प्रतिपादित किया। वेशभूषा व उपकरणों के प्रति अपने साधकों की सहज अनासक्ति के कारण पार्श्व प्रभु ने उनके नियम विस्तार से प्रतिपादित नहीं किये जबकि वीर प्रभु ने अपने साधकों की स्थिति के कारण किये। सभी तीर्थंकरों ने सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र को मोक्ष-मार्ग बताया। पांचों इन्द्रियों, चारों कषायों व एक मन, इन दस को जीत लेने पर सब शत्रुओं को जीत लिया जाता है। राग द्वेष के बंधन धर्म से कटते हैं। सांसारिक तृष्णा की विष-बेल धर्म से समूल उखड़ती है। कषायों की आग श्रुत, शील व तप के जल से बुझती है। मन का दुष्ट घोड़ा शास्त्र-ज्ञान-रूपी लगाम से वशीभूत हो सन्मार्ग-गामी बनता है। मिथ्यादर्शन उन्मार्ग है। जिनेन्द्र-कथित धर्म सन्मार्ग है। ज्ञान से उन्मार्ग-त्याग व सन्मार्ग-वरण संभव है। धर्म ही जरा-मरण-वेग में बहते प्राणियों के लिये एकमात्र द्वीप व उत्तम शरण है। शरीर नौका, जीव नाविक व संसार समुद्र है। महर्षि इसे पार कर निर्वाण प्राप्त करते हैं। समाधान प्राप्त कर केशी श्रमण शिष्यों सहित प्रभु महावीर के धर्म-संघ में सम्मिलित हुए। देव-मनुष्य-असुरों से परिपूर्ण वह धर्म-सभा उस ज्ञान-चर्चा से सन्मार्ग पर दृढ़ आस्था-सम्पन्न हुई।
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उत्तराध्ययन सूत्र