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४४. (केशीकुमार श्रमण ने कहा-) “हे गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है।
आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया। (किन्तु एक) अन्य संशय भी मुझे है, हे गौतम! उसके विषय में (भी) मुझे आप बताएं।"
४५. “हे गौतम! एक लता (है जो) अन्तर हृदय में पैदा होती है।
उसको विष-तुल्य फल (भक्ष्य) लगते हैं। (आप ने) उस लता को कैसे उखाड़ फेंका है?"
४६. (गौतम स्वामी ने कहा-) “मुने! मैं उस लता (विष-बेल) को
सर्वथा काट कर और मूल से उखाड़ कर न्यायोचित (शास्त्रमर्यादानुरूप) रीति से विहार करता हूं (इसलिए)
विष-(फलों) के खाने से मुक्त हो चुका हूं।" ४७. (तब) केशीकुमार मुनि ने गौतम स्वामी से कहा- “किस लता
का (आपने) कथन किया है?" तदनन्तर (इस प्रकार) कहने पर केशीकुमार को गौतम स्वामी ने यह कहा
| COTIONARY
४८. “हे महामुने! भव-तृष्णा (सांसारिक सुख-इच्छा) को ही भयप्रद
(क्लिष्ट कर्म रूप फल देने वाली) भयंकर लता कहा है, उसे न्यायोचित (शास्त्रमर्यादा अनुरूप) रीति से उखाड़कर मैं विचरण
करता हूं।" ४६. (महामुनि केशीकुमार ने कहा-) “हे गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ट
है। आपने मेरा यह संशय (भी) दूर कर दिया। (किन्तु एक) अन्य संशय भी मुझे है, हे गौतम! उसके विषय में मुझे आप बताएं।”
५०. “हे गौतम! घोर (प्रचण्ड) प्रज्ज्वलित अग्नियां (संसार में)
विद्यमान हैं, जो प्राणियों के शरीर में स्थित होकर (प्राणियों के अन्तर को) जलाती रहती हैं, आपने उन्हें कैसे बुझाया?"
अध्ययन-२३
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