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३५. (जो स्थान) प्राणियों से रहित हो, (शालि आदि) बीजों से रहित
हो, ऊपर से ढंका हुआ हो, (दीवार आदि से) घिरा हुआ हो, ऐसे स्थान में, संयमी (मुनि) अन्य सहधर्मी मुनियों के साथ (अथवा समता-भाव से) आहार-कण को (भूमि पर) न गिराते
हुए, यतना-पूर्वक भोजन करे । ३६. (आहार करते हुए भोज्य वस्तुओं के विषय में) 'बहुत ही अच्छा
बना है', 'अच्छी तरह पकाया गया है', 'अच्छी तरह काटा गया है', 'अच्छी जगह से लाया गया है', या 'अच्छी तरह से इसकी मूल कड़वाहट आदि हटा दी गई है', 'अच्छी तरह 'प्रासुक' किया गया है', या ‘घी आदि अच्छी तरह समाविष्ट किया गया है', 'यह बहुत रसपूर्ण बना है', 'यह सभी तरह से सुन्दर है' -
इस प्रकार की सावद्य (भाषा) को मुनि छोड़ दे। ३७. जिस प्रकार भद्र (उत्तम/अच्छे) घोड़े को हांकता हुआ वाहक
(अश्व शिक्षक) आनन्दित होता है, उस प्रकार पण्डित (मेधावी शिष्य) को सिखाता हुआ (गुरु भी) आनन्दित होता है। किन्तु बाल (अविनीत शिष्य) को शिक्षा देता हुआ (गुरु), अड़ियल घोड़े को हांकने वाले वाहक (अश्वशिक्षक) की भांति खिन्न होता है।
३८. (गुरु के) कल्याणकारी अनुशासन को पापमयी दृष्टि वाला शिष्य
ऐसा समझता है कि 'यह मुझे ठोकर मारी गई है', 'यह मुझे थप्पड़ मारा गया है', 'यह मेरे लिए गाली है', तथा 'यह मुझ पर प्रहार किया गया है।
३६. (किन्तु) साधु (योग्य शिष्य) 'यह मुझे पुत्र, भाई व आत्मीय जन
समझ कर शिक्षा दी जा रही है' - ऐसा समझते हुए (उस अनुशासन को) कल्याणकारी मानता है, किन्तु पाप दृष्टि (शिष्य) अनुशासन प्राप्त करने की स्थिति में स्वयं को 'दास' (के समान) समझता है।
अध्ययन १
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