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३०. (शिष्य गुरु के समीप) ऐसे आसन पर बैठे जो (गुरु के आसन से) ऊँचा न हो, आवाज न करता हो, तथा स्थिर हो । (जब शिष्य) बैठे तो निष्प्रयोजन उठे नहीं, (और) कम उठना-बैठना करे, तथा (हाथ-पैर आदि से) असत् चेष्टाएं न करे ।
३१. भिक्षु यथासमय (ही भिक्षार्थ) निष्क्रमण करे, और यथासमय (ही) लौट आये। अकाल (अयोग्य/अनुचित समय पर कार्य करने) का त्याग कर, समयोचित कार्य को यथासमय (ही) करे ।
३२. (जीमनवार की) पंक्ति में भिक्षु खड़ा न रहे, (गृहस्थ द्वारा) प्रदत्त (भिक्षा) की एषणा (ग्रहण) करे, (और) यथोचित (मर्यादानुरूप) भिक्षा ग्रहण कर, यथोचित समय में परिमित भोजन करे ।
३३. (किसी गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ जाने पर यदि अन्य कोई एक या अनेक भिक्षु वहां उपस्थित हों, तो ऐसी स्थिति में उन भिक्षुओं से) न तो अत्यन्त दूर और न ही अधिक निकट ही खड़ा रहे। अन्य (गृहस्थित) व्यक्तियों की दृष्टि के सामने भी न खड़ा रहे, बल्कि भिक्षा के लिए एकाकी (एकान्त में या राग-द्वेषरहित होकर) खड़ा (होकर प्रतीक्षा करता) रहे, (किन्तु) उस (पहले आए हुए भिक्षु) का अतिक्रमण न करे (अर्थात् पहले आए भिक्षु को लांघ कर, उससे पहले भिक्षा लेने का यत्न न करे) ।
३४. संयमी मुनि प्रासुक (अचित्त - जीवादि रहित) तथा परकृत (गृहस्थ द्वारा स्वयं के लिए बनाये गए, न कि मुनि के लिए बनाये गये) आहार को ग्रहण करे। अत्यधिक ऊँचे स्थान से (लाए गये आहार को), तथा अतिसमीप या अत्यन्त दूरी से (दिए गए आहार को भी) ग्रहण न करे ।
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अध्ययन १
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