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________________ निर्वसन राजीमती को देखा। मन में विकार जागा। सांसारिक सुख भोग कर बाद में संयम लेने का प्रस्ताव रखा। इस पर महासती ने प्रबल तर्क-सम्मत प्रेरणा से उन्हें संयम में पुनः स्थिर किया। प्रायश्चितपूर्वक रथनेमि संयम-पथ पर दृढ़ता से बढ़े। साधना बल से रथनेमि व राजीमती, दोनों सिद्ध, बुद्ध और मुक्त रथनेमि सांसारिकता को त्याग देने वाले मुनि थे। काम ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इस से संयम के शत्रु काम की प्रबलता का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। काम को जीतना कठिन है। इसीलिये जैन-दर्शन में ब्रह्मचर्य को सर्वोत्तम तप कहा गया है। एक ब्रह्मचर्य नष्ट होने से सभी गुण नष्ट हो जाते हैं और एक ब्रह्मचर्य के सध जाने से सभी गुण अपने आप सध जाते हैं। ब्रह्मचर्य आत्मा का स्वभाव है। काम, विकार है। जीवन को विकृत करने वाली शक्ति है। आत्मा को भवसागर में फंसाने वाला तूफान है। ब्रह्मचर्य के बल पर इसका सामना किया जा सकता है। इस से मुक्त रहा जा सकता है। इसे जीता जा सकता है। ब्रह्मचर्य शारीरिक-मानसिक-आत्मिक शक्तियों का स्रोत है। वह अंधविश्वास नहीं है। इच्छाओं का षड्यंत्र समझकर स्वयं को उनका दास बनने से रोकने वाली कला है। शारीरिकता के अंधकार से आत्मिक-निर्मलता के प्रकाश की ओर अग्रसर करने वाला विज्ञान है। पतन को पावनता बना देने वाली प्रेरक शक्ति है। स्व-पर-कल्याण का मूल हेतु है। धर्म है। राजीमती इस धर्म की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं। रथनेमि इस धर्म के बल से पतन को उत्थान बना देने वाले पराक्रम हैं। महासती राजीमती ब्रह्मचर्य की तेजस्वी प्रेरणा हैं। इस प्रसंग का जैन धर्म में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। आर्य शय्यंभव ने "दशवकालिक सूत्र" में इसे संकलित कर यह स्वीकार किया है कि ब्रह्मचर्य प्रत्येक संयम-साधक के लिये अनिवार्य है। संयम-पथ से डावाँडोल होने वाला साधक आज भी महासती राजीमती द्वारा दिये गये ओजस्वी उद्बोधन से संयम में पुन: स्थिर होता है। यह इस प्रसंग के त्रिकाल-व्यापी महत्त्व की महत्त्वपूर्ण सूचना है। इस सूचना का आधार होने के कारण भी प्रस्तुत अध्ययन की स्वाध्याय मंगलमय है। 00 अध्ययन-२२ ४०७
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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