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________________ अध्ययन-सार : विदेशों में व्यापार कर लौटते हुए समुद्र-यात्रा में ही 'पालित' श्रावक की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया। उसका नाम 'समुद्रपाल' प्रसिद्ध हुआ। 'पालित' श्रावक भगवान् महावीर के शिष्य और चम्पा नगरी के विशिष्ट वणिक् श्रावक थे एवं निर्ग्रन्थ-प्रवचन के ज्ञाता भी थे। उनका उक्त पुत्र 'समुद्रपाल' भी सुन्दर, प्रियदर्शी, नीति निपुण एवं समस्त कलाओं का ज्ञाता था। 'रूपिणी' नामक सुन्दर कन्या के साथ उसका विवाह हो गया। उसने एक समय अपने सुरम्य प्रासाद से बाहर एक दृश्य देखा कि एक अपराधी को राजपुरुष वध-स्थान की ओर ले जा रहे हैं। उक्त दृश्य देख कर वह शुभ-अशुभ कर्मों के सुफल-दुष्फलों के सम्बन्ध में सोचता रहा। संसार के प्रति उसके मन में संवेग व विरक्ति का ऐसा ज्वर उठा कि वह अनगार दीक्षा लेने के लिए कृतसंकल्प हो गया। माता-पिता से अनुमति लेकर, वह मुनि बन कर शास्त्रोचित साधुचर्या में प्रवृत्त हुआ, और तप-साधना से कर्म-क्षय कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गया। अनगार-दीक्षा ग्रहण करने के अनन्तर समुद्रपाल जैसी मुक्तिगामी आत्माएं जिस प्रशस्त चिन्तन के साथ संयम-कर्मों में अग्रसर होती हैं, उसका सार इस प्रकार है: मुमुक्षु को चाहिए कि वह आसक्ति व महामोह को महाक्लेशकारी व भयावह समझे और श्रमण-चर्या, संयम, व्रत, शील आदि के पालन में तथा परीषहों को समभाव से सहने में अभिरुचि रखे। पांच महाव्रतों का निर्दोष पालन करते हुए समस्त सावध योग (पापाचार) से सर्वथा दूर रहे। समस्त जीवों के प्रति क्षमा व करुणा भाव रखे और अपनी चारित्रिक सामर्थ्य के अनुरूप बलाबल को जानता हुआ सिंह-वृत्ति से विचरण करे। आत्मगुप्त संयमी साधु प्रतिकूलताओं की उपेक्षा करे और देव, मनुष्य-तिर्यञ्च कृत उपसर्गों में भी मेरु की तरह अकम्पित/अव्यथित होता हुआ समभाव से सहन करे। वह न तो किन्हीं भयकारी शब्दों से संत्रस्त हो, न ही किसी को असभ्यवचन कहे। सरल, अकिंचन, ममत्वहीन, संसारीजनों के परिचय से दूर, आत्महितसाधक, परमार्थ में स्थित, प्राणिरक्षक व समभावी साधक निर्वाण-मार्ग को प्राप्त होता है। अनुत्तरज्ञान का धारक एवं अनुत्तर धर्म-संचय करने वाला यशस्वी महर्षि अन्तरिक्ष में सूर्य की भांति धर्म-संघ में प्रकाशमान होता है। 00 ४०४ उत्तराध्ययन सूत्र
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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