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३६. “जो प्रव्रजित होकर महाव्रतों का प्रमादवश अच्छी तरह (स्पर्श)
पालन नहीं करता, अपनी आत्मा का निग्रह नहीं कर पाता और रसों (सांसारिक सुखों) में आसक्त रहता है (वह) (रागादि या
कर्म-रूप) बन्धन का मूलतः उच्छेद नहीं कर पाता।" ४०. “ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और जुगुप्सना (अर्थात्
उच्चार व प्रस्रवण की परिष्ठापना) में जिसकी कुछ भी सजगता नहीं होती, वह (उस) मार्ग का-जिस पर वीर पुरुष चला करते
हैं- अनुगमन नहीं कर सकता।' ४१. “चिरकाल तक (मात्र) मुण्डन में रुचि रखकर और चिरकाल
तक आत्मा को कष्ट (काय-क्लेशमात्र) देकर भी, (यदि कोई) व्रतों में अस्थिर एवं तप-नियमों से भ्रष्ट हो, (तो वह) निश्चय
ही संसार को पार करने वाला नहीं हो सकता ।” ४२. “जिस प्रकार पोली मुट्ठी (सारहीन) होती है, उस तरह जो असार
(सारहीन) होता है, खोटे कार्षापण (सिक्के) की तरह जो अनियन्त्रित (अमान्य) होता है, वह (द्रव्यलिंगी मुनि) वैडूर्य जैसी, मात्र चमक रखने वाली काँच-मणि की तरह जानकारों (परीक्षकों)
की दृष्टि में मूल्यहीन (या अल्पमूल्य वाला ही) होता है।" ४३. “(जो) कुशील (आचार-हीन व्यक्ति) साधुओं के वेश तथा
ऋषि-ध्वज (रजोहरण आदि मुनि - चिन्ह) को धारण कर उनसे आजीविका चलाता है, असंयत होकर भी (स्वयं को) संयमी कहता है, वह चिरकाल तक (नरक गति आदि) विनाश को प्राप्त
होता है।" ४४. “जिस प्रकार पिया हुआ 'कालकूट' विष और अनुचित रीति से
(या उलटे रूप से) पकड़ा हुआ शस्त्र (और) वशीभूत नहीं किया हुआ वेताल (पिशाच), घातक होते हैं, उसी प्रकार विषय-वासना से युक्त होने पर यह (निर्ग्रन्थ) धर्म (भी विनाशकारी) होता है।"
अध्ययन-२०
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